________________ विभिन्न सम्प्रदायों की दर्शन संबंधी मान्यताएं : 125.. करने होंगे। इसी समस्या को दृष्टिगत रखते हुए हम कह सकते हैं कि सात तत्त्वों को अपेक्षा नौ तत्त्वों को अवधारणा अधिक बुद्धिगम्य है किन्तु दूसरी ओर समस्या यह है कि यदि पुण्य-पाप आस्रव, बन्ध और निर्जरा रूप ही हैं तो फिर उन्हें स्वतन्त्र तत्व मानने को क्या आवश्यकता है ? निष्कर्ष रूप में हम कह सकते हैं कि सात तत्त्वों की अवधारणा और नौ तत्त्वों की अवधारणा में आत्यान्तिक विरोध तो नहीं है फिर भी मान्यता भेद तो अपनी जगह है। हम पूर्व में भी यह स्पष्ट कह चुके हैं कि न तो श्वेताम्बर परम्परा को सात तत्त्व मानने में कोई आपत्ति है और न ही दिगम्बर परम्परा का नौ तत्त्व मानने में कोई विरोध है / फिर भी तत्त्व की संख्या को लेकर दोनों परम्पराओं की अपनी-अपनी विशेषता तो है / पुनः यदि पुण्य और पाप को स्वतन्त्र तत्त्व मानने में किसी को आपत्ति है तो उसका प्रत्युत्तर यह है कि फिर तो जीव और अजीव ये दो ही तत्व मानने चाहिए, क्योंकि शेष पांच तत्त्व भी जीव-अजोव के संबंधों के ही सूचक हैं, उनकी भी स्वतन्त्र सत्ता नहीं हैं। अतः पाप-पुण्य को स्वतन्त्र तत्त्व मानना भी अयुक्तिसंगत नहीं है। काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने का प्रश्न : जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल-इन षडद्रव्यों की अवधारणा को लेकर सामान्य रूप से तो श्वेताम्बर और दिगम्बर दोनों परम्पराओं में कोई विशेष मतभेद नहीं है किन्तु जहाँ दिगम्बर परम्परा . काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानती है वहीं श्वेताम्बर परम्परा में कुछ प्राचीन आचार्य काल को स्वतन्त्र द्रव्य नहीं मानते थे। यही कारण है कि काल. के सन्दर्भ में तत्त्वार्थसूत्र में जो सूत्र मिलता है वह श्वेताम्बर और दिगम्बर परंपरा में किंचित भिन्न है / श्वेताम्बर परंपरा द्वारा मान्य तत्त्वार्थसूत्र में "कालश्चेत्येके" सूत्र है। जबकि दिगम्बर परंपरा के सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ में यह सूत्र "कालश्च" है। सूत्रों की इस भिन्नता के कारण दोनों परपराओं का मतभेद स्पष्ट रूप से सामने आ जाता है। श्वेताम्बर परंपरा मान्य पाठ का तात्पर्य है कि कुछ लोग काल को भी एक द्रव्य मानते हैं, जबकि दिगम्बर परंपरा मान्य पाठ का तात्पर्य है कि काल भी स्वतन्त्र द्रव्य है / वस्तुतः श्वेताम्बर परंपरा काल को स्वतन्त्र द्रव्य मानने के सन्दर्भ में दो प्रकार के मतों का उल्लेख करती है / इसके कुछ आचार्यों 1.. तत्वार्थसूत्र, 5 / 38 2. सर्वार्थसिद्धि, 5 / 38