________________ जैनधर्म के सम्प्रदाय : 75 मात्र दो प्रशस्तियां-नंदिपददुर्गवृत्ति की दाता प्रशस्ति ( 1160 ई०) तथा पद्मप्रभचरित को प्रशस्ति ( 1198 ई० ) ही मिलती हैं। पद्मप्रभचरित की प्रशस्ति से यह भी ज्ञात होता है कि यह गच्छ विद्याधर गच्छ की एक शाखा यो। 20. मागमिक गच्छ : चन्द्रकुल की एक शाखा वृहद्गच्छ के नाम से प्रसिद्ध थो। इसी वृहद्गच्छ से 1092 ई० में पूर्णिमा गच्छ का प्रादुर्भाव हुआ और उसी पूर्णिमा गच्छ की एक शाखा के रूप में 1157 ई० अथवा 1193 ई० में आगमिक गच्छ उत्पन्न हुआ। इस गच्छ का एक अन्य नाम आगम गच्छ भी मिलता है। इस गच्छ का सर्वप्रथम अभिलेखीय उल्लेख 1364 ई. के एक प्रतिमालेख में हुआ है। इसके अतिरिक्त 1414 ई० से 1524 ई. तक के 11 अन्य लेखों में भी इस गच्छ के विविध आचार्यों के उल्लेख उपलब्ध होते हैं। पूर्णिमा गच्छ के प्रवर्तक आचार्य चन्द्रप्रभसूरि के शिष्य आचार्य शीलगुणसूरि इस गच्छ के संस्थापक आचार्य माने जाते हैं / आगमिक गच्छ और उसको शाखाओं को उपलब्ध विविध पट्टावलियों में इस गच्छ के प्रवर्तक आचार्य के रूप में शोलगुणरि का हो नामोल्लेख उपलब्ध होता है। ... आचार्य शीलगुणसूरि के साथ ही इस गच्छ के कई प्रभावक आचार्यों के नाम भी इन पट्टावलियों में उपलब्ध होते हैं, यथा-देवभद्रसूरि, धर्मघोषसूरि, यशोभद्रसूरि, सर्वाणंदसूरि, अभयदेवसूरि, वज्रसेनसरि,जिनचन्द्रसूरि, हेमसिंहसूरि, रत्नाकरसूरि, विजयसिंहसूरि, गुणसमुद्रसूरि, अभयसिंह 1. नाहटा, अमरचन्द “जैन श्रमणों के गच्छों पर संक्षिप्त प्रकाश"; . उद्धृत-यतीन्द्रसूरि अभिनन्दन ग्रन्थ, पृ० 135-165 2. श्री जैन प्रतिमा लेख संग्रह, क्रमांक 304 (अ) 3. (क) वही, क्रमांक 1, 75, 82, 247 / (ख) प्रतिष्ठा लेख संग्रह, क्रमांक 215, 420, 531, 572, 639/ 745, 887 4. . शिवप्रसाद-आगमिक गच्छ/प्राचीन त्रिस्तुतिक गच्छ का संक्षिप्त इतिहास; उत्त -Aspects of Jatnologs, Vol. 3, p. 241-243