________________ .46 : जैनधर्म के सम्प्रदाय की गुफा में मिलते हैं। इनका निर्माण पल्लव नरेश महेन्द्रवर्मा (प्रथम) के राज्यकाल (625 ई०) में हुआ था। ७वीं शताब्दी से पूर्व की चित्रकला के रूप में ऐसी कोई सामग्री हमें उपलब्ध नहीं हो सकी है, जिससे जैनधर्म के विविध सम्प्रदायों एवं उपसम्प्रदायों के उद्भव एवं विकास की जानकारी ज्ञात हो सकती हो। ___ मुडबिद्रि तथा पाटन के जैन भण्डारों में उपलब्ध ताडपत्रीय चित्र भो प्राचीन माने जाते हैं, इनका समय ११वों से १४वीं शताब्दी माना जाता है। कागज पर चित्रित सबसे प्राचीन प्रति 1427 ई० में लिखित कल्पसूत्र की है। सम्प्रति यह प्रति लन्दन को इण्डिया आफिस लाइब्रेरी में है। इस प्रकार स्पष्ट है कागज पर चित्रित चित्र परवर्ती हैं। ताडपत्रीय चित्र भी ११वीं शताब्दी से अधिक प्राचीन नहीं हैं, इनकी अपेक्षा भित्तिचित्र ही अधिक प्राचीन है। जैन चित्रों के आधार पर हम किसी सीमा तक जैन धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों की साम्प्रदायिक मान्यताओं को भी समझ सकते हैं। उदाहरण के रूप मे दिगम्बर ग्रन्थों में सर्वत्र तीर्थंकरों एवं मुनियों को नग्न ही चित्रित किया जाता है जबकि श्वेताम्बर परम्परा में तीर्थंकरों एवं मुनियों को नग्न रूप में प्रदर्शित नहीं किया जाता है। उनमें तीर्थंकर चित्र पद्मासन स्थिति में ही उपलब्ध होते हैं। साथ ही उन्हें आभूषणों से अलंकृत दर्शाया जाता है तथा मुनियों को चोलपट्टक एवं उत्तरीय आदि के साथ चित्रित किया जाता है। लगभग १८वीं शताब्दी से स्थानकवासी परम्परा के जो भी सचित्र ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं, उनमें मुनियों एवं साध्वियों के चित्रों में मुखवस्त्रिका प्रदर्शित की जाती है / मुनियों के कुछ चित्रों में मुखवस्त्रिका उनके हाथ में अथवा कंधे पर भी दिखाई जाती है / इस प्रकार जैन चित्रकला के माध्यम से भी हम जैन धर्म के विविध सम्प्रदायों, उपसम्प्रदायों एवं उनकी मान्यताओं को समझ सकते हैं। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि मन्दिर और गुफा-शिल्प को छोड़कर जैन साहित्य, जैन मूर्तियाँ, जैन अभिलेख और जैन चित्रकला जैन सम्प्रदायों एवं उपसम्प्रदायों के उद्भव एवं विकास को समझने के महत्त्वपूर्ण स्रोत हैं, इन्हीं के आधार पर जैन सम्प्रदायों का प्रामाणिक इतिहास लिखा जा सकता है। 1. नामदेव, डॉ० शिवकुमार जैन कला विकास और परम्परा, केसरीमल सुराणा अभिनन्दन ग्रन्थ, खण्ड 6, पृ० 162