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इतना तूफान मचाना किस काम का ? यदि श्रनमेल श्रादि विवाह धर्मविरुद्ध नही है तो विधवाविवाह भो धर्मविरुद्ध नहीं है । इसलिये जिस प्रकार 'निर्दोष' विशेषण सदपा के विवाह को धर्मविरुद्ध नहीं ठहरा सकता, उसी प्रकार 'कन्या' विशेषण विधवा के विवाह का धर्मविरुद्ध नहीं ठहरा सकता । इसके लिये हमने पहिले लेख में खुलासा कर दिया है कि 'कन्या और विधवा में करुणानुयोग की दृष्टि में कुछ अन्तर नहीं है जिससे कन्या और विधवा में जुदी जुदी दा श्रामाएँ बनाई जायें' । इस अनुयोग सम्बन्धी प्रश्न का श्राप कुछ उत्तर नहीं दे सके ।
आक्षेप (घ ) - जैन सिद्धान्त में कन्या का विवाह होना है, यह स्पष्ट लिखा है । विधवा को आर्यिका होने का या वैधव्य दीक्षा धारण करने का स्पष्ट विधान है । इसलिये विधवाविवाह का विधान व्यभिचार को पुष्टि है ।
समाधान – कन्या शब्द का अर्थ 'विवाह कराने वाली स्त्री' या 'दुल्हिन' है ( स्त्री सामान्य आपने भी माना है । ) । दुल्हिन कुमारी भी हो सकती है और विधवा भी हो सकती है, इसलिये जैन सिद्धान्त की आज्ञा से विधवाविवाह का कुछ विरोध नहीं । शास्त्रों में तो अनेक तरह की दीक्षाओं के विधान हैं, परन्तु जो लोग दीक्षा ग्रहण नहीं करते. वे धर्मभ्रष्ट नहीं कहलाते । जिनमें विरक्ति के भाव पैदा हुए हो, कपायें शांत होगई हों, वे कभी भी दीक्षा ले सकती है। परन्तु जब विरक्ति नहीं हैं, कपायें शान्त नहीं है, तब जबर्दस्ती उनस दीक्षा नहीं लिवाई जा सकती । 'ज्यों ज्यों उपशमत कपाया, त्यों त्यो तिन त्याग बताया ' का सिद्धान्त श्रापको ध्यान में रखना चाहिये । इस विषय की प्राय सभी बातें पहिले कही जा चुकी है।
आक्षेप (ङ) - प्रबोधसार में लिखा है कि 'कन्या का