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( ) है । कुन्ती का पारड के साथ पहिले गान्धर्वविवाह हो चुका था। बाद में उस अधर्मदोष को दूर करने के लिये नहीं, किंतु अपनी कुमारी कन्या का विवाह करना माता पिता का धर्म है इल नीति वाक्य को पालने के लिये उनने अपनी कुमारीकन्या कुन्ती का विवाह किया। गान्धर्व विवाह के अधर्म के दोष को दूर करने के लिये उन्हें कुन्ती का विवाह नहीं करना पड़ा, किन्तु पाराडु को पान चुनना पडा । इसलिये विवाह व्यभिचार-दोष को दूर करने का अभ्यर्थ साधन नहीं है । (विद्यानन्द)
समाधान-आक्षेपक ने यहाँ पर बडा विचित्र प्रलाप किया है । इमने कहा था कि विवाह के पहिले अगर किसी क्मारी से सम्भोग किया जायगा तो व्यभिचार कहलायगा. अगर विवाह के बाद सम्भोग किया जायगा तो व्यभिचार न कहा जायगा। मतलब यह कि विवाह से व्यभिचार दोष दूर होता है । इस वक्तव्य का उत्तर आक्षेपक से न बना । इसलिये उनने कहा कि विवाह के पहिले किसी कमारी के साथ संभोग करना व्यभिचार ही नहीं है। तब तो पडित लोग जिस चाहे कुमारी लडकी के साथ सभोग कर सकते है, क्योंकि उनकी दृष्टि में यह व्यभिचार नहीं है। तारीफ़ यह है कि व्यभिचार न मानने पर भी इसे अधर्म मानते हैं। व्यभिचार तो यह है नहीं, बाकी चार पापों में यह शामिल किया नहीं जा सकता, इसलिये अब कौनसा अधर्म कहलाया ? आक्षेपक ने गान्धर्व विवाह के लक्षण में भूल की है । प्रवीचार करना विवाह का अन्यतम फल है, न कि विवाह । गांधर्व विवाह में वर कन्या एक दूसरे से प्रतिज्ञाबद्ध होजाते हैं, तव प्रवीचार होता है । विवाह के पहिले पाण्ड और कुन्ती का जो संसर्ग हुआ था वह व्यभिचार ही था। अगर वह व्यभिचार न होता तो उस संसर्ग से पैदा होने