Book Title: Jain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi

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Page 243
________________ बावीस तित्ययग सामाइग मंजम उचटिमन्ति । छेटुव ठावणियंपुण भयवं उसहो य वीगंय ॥ ५३३ ।। 'अर्थात् याईस तीर्थकर मामायिक संयम का उपदेश देते हैं और भगवान ऋषभ और महावीर छटोपाधापना । अगर आप बहकेर म्वामी श्री विद्वत्ता पर दया न यतला सके नो अपनी विद्वत्ता को दयनीय बनलाय, जो कृप मगड़क की नरह हंस के विशाल अनुभव को दयनीय बतला रही है। आक्षेप (ग)-विना व्यवहारका पालम्बन लिय मोक्ष मार्ग के निकट पहुंच नहीं हो सकती। (विद्यानन्द) समाधान व्यवहार का निषेध मैं नहीं करना, न कहीं किया है। यहाँ नो प्रश्न व्यवहारके विविध रूपों परई। कुमा रीविवाह में जैसी व्यवहार धर्मता है वैसी ही विधवाविवाह में गी है। यहाँ व्यवहार के दो रुप यतलाये दे-व्यवहार का श्रभाव नहीं किया गया। आक्षेप (घ)-जर पथ भ्रष्टता हाचुकी नो लक्ष्य तक पहुंच ही कैसे होगी? समाधान-मार्ग की विविधता या यान की विविधता पथम्रपना नहीं है। कोई वी० बी० मी० आई० लाइनसे देहली जाता है, कोई जी० आई० पी० लाइन से, कोई ऐक्सप्रेस से, कोई मामूली गाडी से, कोई फर्टकास में, कोई पई. क्लास में, परन्तु इन सब में पर्याप्त विविधता होने पर भी कोई पथभ्रष्ट नहीं है क्योंकि समय-भेद मार्ग मेद होने पर भी दिशाभेद नहीं है। विधवाविवाह, कुमारीविवाह के समान निरगल कामवासनाका दूर करता है। इसलिये दोनांकी दिशा पक है, दोनों ही लक्ष्यके अनकूल है, इसलिये उसे पथ. अष्टता नहीं कह सकते।

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