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शुद्धि भी अनन्त तरह की है। इसलिये उनका उपचार भी अन्तर का होगा । लोक और शास्त्र दोनों ही जगह साध्य की एकता होने पर भी साधन में भिन्नता हुथा करनी है | श्रीलालजी का यह कहना बिलकुल झूठ है कि संसारी श्रात्माओं की श्रवम्या नहीं पलटती । अगर संसारी श्रात्मा की अवस्था ने पलटे तो सब मसारियों का एक ही गुणस्थान, एक ही जीवसमास और एक ही मार्गणा होना चाहिये | निम्नलिखित बानों पर दानों श्राक्षेपकों को विचार करना चाहिये । १- मनुष्य अगर अणुवन पाले तो वह पानी छानकर और गर्म करक पियेगा, जब कि श्रणुवती पशु ऐसा न कर सकेगा। वह बहता हुआ पानी पीकर कभी श्रणुवनी बना रहेगा । व्यवहार धर्म अगर एक है तो पशु और मनुष्य की प्रवृत्ति में अन्तर क्यों ?
२ - कोई कमण्डलु श्रवश्य रक्पंगा, कोई न रखेगा, यह अन्तर यो ?
3- किसी के अनुसार तीन मकार और पांच फल का न्याग करके ही [ विना श्रवनों के ] मूलगुण धारण किये जा सकते है, किसी मत के अनुसार मधु सेवन करते हुएभी मूलगुण पालन किये जा सकते है क्योंकि उसमें मधु के स्थान पर द्यूत का त्याग बतलाया है । इस तरह के अनेक विधान क्यों हैं ? अगर कहा जाय कि इस में सामान्य विशेष अपेक्षा का मेट है तो कौनमा सामान्य श्रर कौनसा विशेष है ? औरइस अपेक्षा भेद का कारण क्या है ?
४-२२ तीर्थकरों के तीर्थ में चार संयमों का विधान क्यों रहा ? और दो ने पाँच का विधान क्यों किया ? [ कोई सामायिकका पालन करें, कोई छेदोपस्थापना का यह एक
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