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( ५ ) कि पुरुषों को अपनी उच्चना के लिहाज़ से ज्यादः त्याग करना चाहिये । मुनिपद श्रेष्ठ है और श्रावकपद नीचा । अब कोई कहे कि मुनि उच्च है, इसलिये उन्हें रण्डीवाज़ी करने का भी अधिकार हैं ! गृहस्थ को तो मुनिपद प्राप्त करना है, इसलिये उसे रगडीवाजी न करना चाहिये ? क्या उच्चता के नामपर मुनियों को ऐसे अधिकार देना उचित है ? यदि नहीं, तो पुरुषों को भी उच्चता के नाम पर पुनर्विवाह का अधिकार न रखना चाहिये । अथवा स्त्रियों का अधिकार न छीनना चाहिये।
इसी युक्ति के बल पर हम यह भी कह सकते है कि त्रियाँ अधिक निर्वल और निःसहाय है, इसलिये स्त्रियों को पुरुषों की अपेक्षा ज्यादा सुविधा देना चाहिये ।
आप (द)-विषय-मोगों की स्वच्छन्दना हरएक को टेढी जाय तो वैराग्यका कारण बहुत ही कम मिला कर छोटो अवस्था की विधवा का दर्शन होना कर्मवैचित्र्य का सूचक है, इससे उदासीनता आती है । (विद्यानन्द)
ममाधान-पुरुष नो एक साथ या क्रम से हज़ारों स्त्रियाँ रक्खे, फिर भी वैराग्य के कारणों में कमी न हो और स्त्री के पुनर्विवाह मात्र से वैगग्य के कारण बहुत कम रह जायेंयह नो विचित्र बात है ! क्या संसार में दुखों की कमी है जो वैराग्य उत्पन्न करने के लिये नये दुःन्न बनाये जाते हैं ? क्या अनेक तरह की यीमारियाँ देखकर वैराग्य नहीं हो सकता ? फिर चिकित्सा का प्रवन्ध क्यों किया जाता है ? यदि आज जेनियों के वैगग्य के लिये संसार को दुश्नी बनाने की जरूरत है तो जैनधर्ममें और बासुरीलीलामें क्या अंतर रह जायगा? यह तो गैद्रध्यान की प्रकर्पता है। जिनको वैराग्य पैदा करना है उन्हें, संसार वैराग्य के कारणों से भरा पड़ा है। मेघों और विज्ञलियों की क्षणभंगुरता, दिन रान मृत्यु का दौरा, अनेक