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(११५ ) सिर्फ यही मिड होता है कि उनमें पुरुषच की उन्मत्तता के साथ द्वितन्त्र की उन्मत्तना भी थी। "उननं पुरुषों को भी कुचला इमलिय स्त्रियों को नहीं कुचला" यह नहीं कहा जामकना । मुमन्नमान श्रापम में भी लड़नं है, क्या इमलिग उनका हिन्दुओं में न लड़ना मिद हो जाना है ? कहा जाता है कि "उनने दुगवारी द्विजों की भी तो निन्दा की है, इसलिये व विदुगवार में ही निन्दा है"। यदि ऐसा है ना दुगचार्गहा की और दुगचारिणी स्त्रियों की ही निन्दा करना चाहिये । स्त्रीमात्र की और शुट मात्र को नीचा क्यों दिवाया जाता है ? अमेरिका में अपगधी लाग दगड पाने है और चंहुन सं इसी नाममात्र के प्रागय पर इमलिये जला दिये जात है कि शी है, ना या यह उचिन है ? अपगत्रियों को दगह देने से क्या निरपराधियों का समाना जायज़ हा जाना है ? प्राचीन लेखकों ने अगर दुगनागियों का कुचला है ना सिर्फ इसीलिए उनका शोक और स्त्रियों की कुत्र. लना जायज़ नहीं पहला मकना।
यह पनपान पिशाच, उम ममय बिलकुल नगा हो जाता है जब दुराचारी द्विज के अधिकार, सदाचारी शुद्ध और मदानारिणी महिला से ज्यादा समझ जान है । दुग. वारी दिन अगर जीन पालकॉकी मार मारकर वाजाय नो मी उमर मुनि बनने का श्रीर मान जाने का अधिकार नहीं छिनना (देखा पद्मपुराण मोटान की कथा ) । परन्तु गढ़ स्निना मी मदाचार्ग क्यों न हो, उनका श्रामविकास कितना ही क्यों न हो गया हा यह मुगि भी नहीं बन सकता। झूठा, चाहा, व्यभित्रार्ग और लुभा द्विज अगर भगवान की पूजा करे ना कोई हानि नहीं. परन्तु शुद्ध श्रारम्मत्यागी या उद्दिष्ट त्यागी ही क्यों न हो, वह जिन पूजा करने का अधिकारी