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मार भी उन जातियों के कोई अधिकार नहीं छिन सकते। सुटि के लिये अलग प्रश्न हैं ।
विद्यानन्दजी की बहुतसी बातों की शालोचना प्रथम प्रश्न में हो चुकी है ।
आक्षेप ( ग ) - विधवाविवाह की सन्तान कभी मोक्षा. विकारिणी नहीं हो सकती। विष का बीज इसलिये भयङ्कर नहीं है कि वह विष वीज हे परन्तु विपबीजोत्पादक होने से भयङ्कर है | ( विद्यानन्द )
समाधान- यह विचित्र वान है । विपवोज अगर स्वतः मयर नहीं है तो उस के खाने में कार्ड हानि न होनी चाहिये, क्योंकि पेट में जाकर as farata पैदा नहीं कर सकता । व्यभिचारी तो वास्तविक अपराधी है। उस के ना अधिकार छिने नहीं और उस की निरपराध सन्तान का अधिकार छिन जाय यह अन्धेर नगरी का न्याय नहीं तो क्या है ? खै ।
रविषेण आचार्य के कथनानुसार व्यभिचारजान में कोई दूषण नहीं होता । यह हम पहिले लिख चुके है। सुदृष्टि के उदाहरण से भी यह बात सिद्ध होती है ।
आक्षेप (घ) - सव्यसाची का यह कहना कि "विधवाविवाह तो व्यभिचार नहीं है। उससे किसी के अधिकार कैसे छिन सकते है" १ यह बात सिद्ध करती है कि व्यभिचार से अधिकार छिनते है ।
समाधान- हमारी पूरी बात उद्धृत न करके श्रक्षेपक ने पूरी धूर्तता की है। समाज की आँखों में धून भोकना चाहा है। पूरी बात यह है 'व्यभिचारजात सुदृष्टि सुनार ने मुनि दीक्षा ली और मोक्ष गया। यह बात प्रसिदूध ही है। इससे मालूम होता है कि व्यभिचार से या व्यभिचारजात होने से