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समाधान-कोई इस आक्षेपक से पूछे कि तुझे मुनि बनने का अधिकार है या नहीं? यदि है, नो नू मुनि क्यों नहीं बनता ? अव तुझे धिक्कारी कहना चाहिये ? क्या आपक इनना भी नहीं समझता कि मनुष्य को धर्म करने का पूर्ण अधिकार है परन्तु धर्म उतना ही किया जासकता है कि जितनी शक्ति होती है । (विशेष के लिये जैनजगत् वर्ष ४ अङ्क ७ में 'योग्यता और अधिकार' शीर्षक लेख देखना चाहिये ।)
"यारुपवाले मांसभक्षी है इसलिये जो हिन्दुस्थानी योरुप जाते हैं उनका वे अपमान करने है क्योंकि योरुप जाने वाले भारतीय धर्मकर्मशून्य है"। श्रीलाल के इन शब्दों के विषय में कुछ कहना वृथा है । भारतीय छूनाळून छोड देते हैं या पोप पण्डिनों की श्राक्षा में नहीं चलते इसलिये उनका विलायत के लोग अपमान करते है, ऐसा कहना जय. दस्त पागलपन के सिवाय और क्या कहा जा सकता है ?
आलेप (ब)-सुमुख आदि के दृष्टान्त से व्यभिचार की पुष्टि नहीं होती । वे नो त्याग करके उत्तम गति गये। दानादि करके उत्तमगति पाई । इसमें कोनसा आश्चर्य है ?
(श्रीलाल) समाधान-धर्म से ही उत्तम गति मिलती है, परन्तु इस सिद्धान्त को तुम लोग कहाँ मानते हो। तुम्हारा तो कहना है कि ऐसा आदमी मुनि नहीं बन सकता. दान नहीं दे सकता, यह नहीं कर सकता, वह नहीं कर सकता । अब तुम यह स्वीकार करते हो कि व्यभिचारी भी दान दे सकता है, मनि या आर्यिका के व्रत ले सकता है। यही तो हम कहते हैं। विवाह से या व्यभिचार से मोक्ष काई नहीं मानता। तुम्हारे कहने से भी यह सिद्ध हो जाता है । जैनधर्म के अनु