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( २०१) "सम्मांग" यह मीया सच्चा अर्थ हरेक आदमी समझता है। १७४ चे श्लाक के चतुर्थी शट का मी पाणिपीडन अर्थ किया है ओर इधर पतिसह शन्ट का भी पाणिपीडन अर्थ किया जाय ना १७५ वॉ श्लोक विलकुल निरर्थक होजाता है इमलिये यहाँ पर पाणिपोहन अर्थ लोक, शास्त्र और ग्रन्थग्चमा की दृष्टि से बिलकुल झूठा है।
अधः शन्द का अर्थ है 'पोछे', परन्तु ये पण्डित करतं है पहिलं': परन्तु न तो किसी कांप का-प्रमाण देते है और न साहित्यिक प्रयोग बतलाते है । परन्तु अधः शब्द का अर्थ पीछे या बाट हाना है. इसके उदाहरण ना जितनं चाहे मिलेंगे। जैम अधोमक्तं अर्थात् गांजनान्ते पीयमान जलाटिकम्-भोजन के अन्त में पिया गया जलाटिक । इसी तरह "अधालिखित लोक" शब्द का अर्थ है 'इसके बाद लिखा गया श्लोक' न कि 'इम पहिले लिखा गया श्लोक' । इमलिये 'पनिसहादधः शट का अर्थ दुवा 'सम्भाग के बाद जब सम्भाग के बाद कन्या दुमरे को दो जामकती है तब स्त्रीपुनर्विवाह के विधान की स्पष्टता और क्या होगी?
अगर 'प्रधा' शब्द का अर्थ 'पहिले' भी कर लिया जाय नां भी १७५२ शनाक से स्त्रीपुनर्यिवाह का समर्थन ही होता है। 'सम्मांग के पहिले' शब्द का मतलब हुआ सप्तपदी के बाद' क्योंकि सम्माग सप्तपदी के बाद हाता है। यदि सप्तपदी के पहिले तक ही पुनर्दान की वान उन्हें स्वीकृत होती तो वे पतिसग शन्ट क्यों डालने ? मतपटी शब्द ही डालने । सप्तपढी के हाजाने पर विवाह पूर्ण हो जाता है और जब सप्तपदी के बाद पुनान किया जा सकता है तो स्त्रीपलिवाह सिद्ध हो गया।
त्रिवर्णाचार में यदि एकाध शब्द ही स्त्रीपुनर्विवाह