Book Title: Jain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi

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Page 210
________________ ( २०० ) का निषेधक है घोर अज्ञानता है। १७४-२७१ वे श्लोकों में कन्या के पुनर्दान या पुनर्विवाह का प्रकरण है । १७६३ श्लोक में पुनः विवाह के विषय में कुछ विशेष विधि वनलाई गई है। विशेष विधि सामान्यविधि की अपेक्षा रपती है इसलिये उसका नवन्ध ऊपर के टोनो श्लोकों से हो जाता है जिनम कि स्त्रीपुनविवाह का विधान है। 'कलौ तु पुनरुद्वाह' 'कलिकाल में तो पुनर्विवाह' यहाँ पर जा 'तु' शब्द पडा है वह भी बतलाता है कि इसकं ऊपर पुनर्विवाह का प्रकरण रहा है जिसका नांशिक निषेध गालव करते हैं। यह 'तु' शब्द भी इतना जयस्त है कि १७६ वे लोक का सम्बन्ध १७५ व श्लोक से कर देता है और ऐसी हालनमें पुरुष के पुनर्विवाह की बात ही नहीं पाती। दूसरी बात यह है कि पुरुपा के पुनर्विवाह का निषेध किसी काल के लिये किसी प्राचीन ऋषि ने नहीं किया। हाँ एक पत्नीके रहते हुए दूसरी पत्नीका निषेध दिया है। परन्तु विधुर होजाने पर दूसरी पत्नीका निषेध नहीं किया है न ऐमी पत्नी को मोगपत्नी कहा है । इसलिये भोगपत्नी के निषेध को पुनर्विवाहका निषेध समझ लेना अक्षन्तव्य शाब्दिक श्रदान है। मतलब यह कि न तो पुरुषों का पुनर्विवाह निरिद्ध है न यहाँ उस का प्रकरण है, जिससे १७६ वे लोकका अर्थ बदला जा सके । यह कहना कि हिन्दु ग्रन्थकारों ने विधवाविवाह का कहीं विधान नहीं किया है बिलकुल भूल है। नियोग और विधवाविवाह के विधानोंसे हिन्दू स्मृतियाँ भरी पडी है । इस का लेख अमितगति श्रादि जैन ग्रन्थकारों ने भी किया है। स्थितिपालक पण्डित १७५ वें श्लोक के पतिसगाधों' शब्दों का भी मिथ्या अर्थ करते हैं । पतिसग शब्द का पाणिपीडन अर्थ करना हद दर्जे की धोखेबाज़ी है । पतिसर-पति

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