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(२२७) पवविध क्लिनन्धं गमायणमुदाहत ॥ २३७ ॥ अश्रद्धेयमिदं सर्व वियुक्तमुपपत्तिमिः ॥ २४ ॥
ये मव श्रेणिक के मुंह में निकले हुप वाक्य हैं। रामा. यण का नाम तक पाया है। श्रेणिक ने गमायण की अन्य बातों की तो निन्दा की, परन्तु विधवाविवाह की काहीं भी निन्दा न की, न गौतम ने ही निन्दा की, इममे विधवाविवाह की जैनधर्मानुकुलता सिद्ध होती है।
आक्षेप (च)-जब कुछ न बना तो एक लांकी बना कर लिग दिया। इस मायाचार का कुल ठिकाना है !
(श्रीनाल) समाधानयथा च जायते दुःखं सदायामात्मयापिनि । नगन्तरेण सर्वेशमियमेव व्याम्पितिः ॥ १४-१६२॥
इम श्लोक में यह बताया गया है, कि परम्त्री रमण से परस्त्री के पनि का कट होता है इसलिये परमी मेवन नहीं करना चाहिये । यह श्लोक पद्मपुराण का निस श्रीलाल जी ने मेग कह कर मझे मनमानी गालियों दी है। इतना ही नहीं ऐसे अच्छे ग्लोक के खगडन करने की भी असफल चेष्टा की है। परन्तु इसम हमाग नहीं पनपुगण का खण्डन और प्राचार्य रविण का अपमान होता है।
इस श्लोक से ग्रह बान सिद्ध होती है, कि परस्त्री रमण से पनि को कम होता है, इसलिये वह पागनी आधार पर यह कहा जाता है कि विधवाविवाह से पति को कम नहीं होता, क्योंकि पति मर गया है इसलिये विधवाविवाह पाए नहीं है। ऐसी सीधी पान भी श्रीलाल जीन समझे ना बलिहारी इस समभ की।
श्रीलाल जी ने यह स्वीकार किया है कि अपनी धिवा