Book Title: Jain Dharm aur Vidhva Vivaha 02
Author(s): Savyasachi
Publisher: Jain Bal Vidhva Sahayak Sabha Delhi

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Page 200
________________ (१६०) अनन्त मानता है, छठे काल में भी ये जातियाँ बनी रहती है तो यह मानना ही पड़ेगा कि विजातीय विवाह आदि से इन जातियों का नाश नहीं हो सकता । जब जाति का नाश करना असम्भव है तो उसकी रक्षा करने की चिन्ता मूर्खता है। आक्षेप (ङ)-अनुमानतः इन जातियों का नवीनत्व प्रसिद्ध है। (विद्यानन्द) समाधान-मोगभूमियों में जातिभेद नहीं था। ऋषमदेव ने तीन जातियाँ बनाई। भरत ने चौथी । इससे इतना तो सिद्ध हो गया कि ये भरत के पीछे की है। इनके याद किसी अन्य तीर्थकरादि ने इनकी रचना की हो ऐमा उल्लेख्न कहीं नहीं है। हाँ, ऐतिहासिक प्रमाण इतना अवश्य मिलता है कि हुएनसंग के जमाने में भारत में सिर्फ ३६ जानियाँ थी और भाज करीव ४ हजार है। इससे मालूम होता है कि पिछले डेढ दो हजार वर्षों में जातियों का ज्वार प्राता रहा है उसी से ये जातियाँ बनी है। जब तक जैनियों का सामाजिक चल रहा तब तक इन जातियों की सृष्टि करने की जरूरत हो ही नहीं सकती थी। बाद में इनकी सृष्टि हुई है। चौबीसवाँ प्रश्न। इस प्रश्न में यह पूछा गया था कि विधवाविवाह से इनके कौन कौन अधिकार छिनते हैं। यह बात हमने अनेक प्रमाणों से सिद्ध की है कि इनके कोई अधिकार नहीं छिनते । परन्तु श्रीलाल ने तो बिलकुल पागलपन का परिचय दिया है। यह बात उसके आक्षेपो से मालूम हो जायगी। आक्षेप (क)-जो अधिकारी होकर अधिकार सम्बन्धी क्रिया नहीं करता वह धिक्कारी बन जाता है।

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