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( अज्ञानी) के लिये है। बच्चों को फुसलाने की बातों को जैन सिद्धान्त के समझने की कुञ्जी समझना मूर्खना है ।
श्राजकल शायद ही किसी ने भावशून्य क्रिया को व्रत कहने की धृष्टता की हो। जो धर्म शुल्कलेश्याधारी नवमचेयक जाने वाले मुनि को भी ( मावशुन्य होने से ) मिथ्यादृप्रि कहता है, उसमें भावशून्य क्रिया से नून बतलाना श्रन्नव्य अपराध है
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आक्षेप (व) - यद्यपि समन्तभद्र स्वामी ने श्रभिप्राय पूर्वक त्याग करना व्रत कहा है किन्तु इसका यह अर्थ नहीं हो सकता कि बाल्यावस्था में दिलाए गये नियम उपनियम सब शास्त्रविरुद्ध है । बाल्यावस्था में दिये गये वूत की अक्लङ्क ने जीवन भर पाना । ( विद्यानन्द )
समाधान -- समन्तभद्र के द्वारा कहे गये वून का लक्षण जानते हुए भी श्रक्षेपक समझते हैं कि बिना भाव के चून ग्रहण हो सकता है। इसका मतलब यह है कि वे जाति स्वभाव के अनुसार जैनधर्म और समन्तभद्र के विद्रोही है या अपना काम बनाने के लिये जैनी वेष धारण किया है। खैर, बाल्यावस्या के नियम शास्त्रविरुद्ध मले ही न हो परन्तु वे चूतरूप अवश्य ही नहीं है । कलङ्क के उदाहरण पर तो श्राक्षे पक ने जग भी विचार नहीं किया । श्रकलङ्क अपने पिता से कहने है कि जब भापने व्रन लेने की बात कही थी तब वह वृत आठ दिन के लिये थोडे ही लिया था, हमने तो जन्मभर के लिये लिया था । इससे साफ मालूम होता है कि व्रत लेते समय कतक की उमर इतनी छोटी नहीं थी कि वून न लिया जा सके | उनने भावपूर्वक वून लिया था और उसके महत्व की और उत्तरदायित्व को समझा था । क्या यही भावशून्य घुन का उदाहरण है ?
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