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(१६७) व्यभिचारजानता के काई चिन्ह नहीं होते। दुराचार से ही मनुष्य नीच कहलाता है।
यदि व्यभिचारजान शूट ही कहलाता है तो रुद्र भी शुद्र कहलाये। जब रुद्र मुनि बनते हैं तब आपको शह मुनि का विधान भी मानना पडंगा । तद्भवमोक्षगामी व्यभिचार जात सुदृष्टि सुनार पर विवंचन नो पागे होगा ही।
आक्षेप (३)जैनधर्म नहीं चाहता कि उममें सख्या. वृद्धि के नाम पर कूडा कचरा भर जाय । यदि ६० बढते हैं ना ६०% मुक्ति भी प्राप्त कर लेते हैं । जैनधर्म स्वयं अपने में बढा हुई संख्या ६० को सिद्धशिला पर सदा के लिये स्थापन कर देता है। (विद्यानन्द)
समाधान-उदाहरण देने के लिये जिस बुद्धिको आव. श्यकता है उस तरह को साधारण बुद्धि भो श्राक्षेपक में नहीं मालूम होती । श्राक्षेपक सख्यावृद्धि के नाम पर कूडा मचग न मरने की बात कहते है और उदाहरण कूडा वग भरने का दे रहे है । व्यवहारराशि में मं छः महीने पाठ समय में ६०० जीव माक्ष जाने है और नित्यनिगोद ले इतने ही जीव बाहर निकलते है । जैन धर्म अगर ६०८ जीव सिद्धालय की मेजना है तो उसकी पूर्ति निगोदियों से कर लेना है । अगर जैनधर्म की संख्या घटने की पर्वाह न होती तो वह सिद्धालय जाने वाले जीवों को संख्यापूर्ति निगोटियों सगैग्वे तुच्छ जीवों में करने को उनारू न हो जाना।
इम उदाहरण से यह वान भी सिद्ध होती है कि जैन. धर्म में कडे कचरे को भी फलफूल बनाने की शक्ति है । वह कूड़े कचरे के समान जीवों को भी मुक्त बनाने की हिम्मत रखता है। जैनधर्म उस चतुर किसान के ममान हे जो गॉत्र भर के कूड़े कचरे का खाद बनाता है और उससे सफल खेती करता