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(१७३) दो यादमी ही रह गये हैं। वहीं वृद्धि और कहीं हानि ना होती ही है परन्तु प्रोमुत लान हज़ार हानि का है । किती किमी जातिम संख्या बढ़ने से जैन समाज को संवाहानि का निषेध नहीं किया जा सकता। जिन जातियों में विवाविवाह का रिवाज है उनमें संख्या नहीं घटती है, या बढ़ती है। साथ ही जिन जानियों में विधवाविवाह का रिवाज नहीं है उनमें इतनी मरया बटनी है कि विधवाविवाह वाली जानियों की सख्या. वृद्धि उस घटी को पूरा नहीं कर पाती।
आक्षेप (ग) हमारी दृष्टि में तो विधवाविवाह में बढ़ने वाली संख्या निर्जीव है। (विद्यानन्द)
ममायान-उसका उत्तर ता युगप अमेरिका आदि देशों के नागरिकों की श्रवन्सा से मिल जाता है। प्राचीनकान के व्यमित्रारजान सुदृष्टि आदि महापुरुष भी ऐसे धानेपों का मुंहनोड उत्तर देते रहे हैं। विशेष के लिये देनी (१८)
आक्षेप (घ)-विधुग्न्त्र के दूर करने का उपाय शास्त्रा में है। मार के लिये औषध विधान है अमाध्य के लिए नहीं। पर ही कार्य कहीं कत्र्य और सफन होता है, कहीं अकर्नव्य और निष्फल ।
ममाघान-विधुरत्व पोर वैवव्यतिरे एक ही विधान है. इस विषय में इस लश में अनेकयार लिखा जा चुका है। असाध्य के लिये औषध का विधान नहीं है परन्तु असाध्य उमे कहते है जो विकिसा करने पर भी दूर न हो सके । वैधव्य नो विधुरस्त्र के समान पुनर्विवाह से दूर हो सकता है, इसलिये घह असाध्य नहीं कहा जा सरना । एक ही कार्य कहीं श्र्तव्य और कहीं अकर्तव्य हो जाता है इसलिये कुमार कुमारियों के लिये विवाह कर्तव्य और विधुर विधानों के लिये अकर्तव्य होना चाहिये । पुनर्विवाह यदि विधुगे के लिये अपनव्य नहीं है