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नहीं, तो वर्तमान का वैधव्य जीवन पुरायोपार्जक नहीं कहला
मकता ।
अठारहवाँ प्रश्न
इस प्रश्न में यह पूछा गया था कि जैनसमाज की सख्या घटने से समाज की हानि है या लाभ ? हमने संख्याघटी की बात का समर्थन करके समाज की हानि बनलाई थी। श्री लाल तो गवर्नमेन्ट की रिपोर्ट का अस्तित्व ही स्वीकार नहीं करते । किम्वदन्ती के अनुसार कुम्भकर्ण ६ महीने सोना था, परन्तु हमारा यह प्रक्षेपक कुम्भकर्ण का भी कुम्भकर्ण निकत्ता । यह जन्म से लेकर वुढापे तक मो ही रहा है। खैर, विद्यानन्द ने सख्याघटी की बात स्वीकार करती है । दोनों श्राक्षेपकों का कहना है कि सख्या घटती है घटने दो, जानि रसातल जाती है जाने दो, परन्तु धर्म को बचाओ ! विधवाविवाह धर्म है कि अधर्म - इस बात की यहाँ चर्चा नहीं है। प्रश्न यह है कि संख्या घटने से हानि है या नहीं ? यदि है तो उसे हटाना चाहिये या नहीं ? हरएक विचारशील आदमी कहेगा कि सख्याघटी रोकना चाहिये। जब विधवाविवाह धर्मानुकुल है और उससे सख्या बढ़ सकती है तो उस उपाय को काम में लाना चाहिये |
आक्षेप ( क ) - जैनी लोग पापी होगये इसलिये उनकी सख्या घट रही है ।
समाधान-बान बिलकुल ठीक हैं। सैकड़ों वर्षों से जैनियों में पुरुषत्व का मद बढ रहा है । इस समाज के पुरुष स्वय तो पुनर्विवाह करते हैं, और स्त्रियों को रोकते हैं, यह श्रत्याचार, पक्षपात क्या कम पाप है ? इसी पाप के फल से इनकी संख्या घट रही है । पूजा न करने आदि से सख्या घटती तो म्लेच्छों की सख्या न बढना चाहिये थी ।