________________
( १२६) जाता है. फिर भले ही उससे धर्म किया जाय या न किया जाय । श्रापक प्याऊ लगवाने को अधर्म कहता है, परन्तु सागारधर्मामृत में प्याऊ और सत्र को स्थापित करने का उप. देश दिया गया है
"सत्रमप्यनुकम्प्यानां सृजेदनुजिघृक्षया । सत्रमत्रप्रदानस्थानं, अपिशब्दात्प्रपांच" ॥
अर्थात्-दीन प्राणियों के उपकार की इच्छा से सत्र (भोजनशाला जहाँ गरीवों को मुफ्त में भोजन कराया जाता है ) और प्याऊ खोले । दान, गृहस्थों का मुख्य कर्तव्य है । जब आक्षेपक दान के विषय का साधारण ज्ञान भी नहीं रखता तो गृहस्थधर्म कैसे निमाता होगा ? जो गृहस्थ प्यासों को पानी पिलाने में भी अधर्म समझता है वह निर्दय तथा कर जीव जैनी कैसे कहला सकता है ? । व्यभिचारिणि को कामभिक्षा नहीं दी जासकती, परन्तु श्राक्षेपक के मतानुसार व्यभिचारियों को काममिक्षा दी जा सकती है, क्योंकि अगर द्वितीय विवाह कराने वाली स्त्री व्यभिचारिणी है, तो द्वितीय विवाह कराने वाला पुरुष भी व्यभिचारी है ! क्या पुरुष का दूसरा विवाह धर्मवृद्धि का कारण है ? यदि हाँ, तो स्त्री का दूसरा विवाह मी धर्मवृद्धि का कारण है, जिसकी सिद्धि पहिले विस्तार से की जा चुकी है।
जो चार चार स्त्रियों को निगलजाने वाले को तो धर्मा. स्मा समझता हो, किन्तु पुनर्विवाह करने वाली स्त्रियों को व्यभिचारिणी कहता हो, उसकी धृष्टतापूर्ण नीचता का कुछ ठिकाना भी है !
आक्षेपक स्वीकार करता है और हम भी कह चुके हैं कि विवाहका लक्ष्य कामशान्ति, खदारसन्तोष, स्व-पतिसन्तोष ' अर्थात् ब्रह्मचर्याणुव्रत है। विवाह कामभिक्षा नहीं है। क्या