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(१४१) ही । साधारण पाप की नो बात ही क्या है परन्तु अणुव्रत नक पाप कहा जासकता है (अणुवन अर्थात् थोडा वन अर्थात् वाकी पाप) जब अणुवन की यह बात है नय श्रोगें की तो वान ही क्या है ? प्राणदण्ड सरीखा कार्य भी जैनसम्राटों ने अधिक अनर्थों को रोकने के लिये किया है । निर्विकल्प अवस्था के पहिले जितने कार्य है वे मब बहु अनधों को रोकने वाले थोडे अनर्थ ही है । प्रकृतवान यह है कि विधवाविवाह से व्यमि चार आदि अनर्थी का निगेध होता है इसलिये वह ग्राह्य है।
आक्षेप (ङ)-जो पुण्य है वह मदा पुरय है। जो पाप है वह सदा पाप है।
ममाधान-नव नो पुनर्विवाह, विधुगे के लिये अगर पुण्य है नो विधवाओं के लिये भो पुण्य कहलाया।
आक्षेप (च)-वस्त्रीसेवन पाप नहीं, पुराय है । इसी. लिये वह खदारसंतोष अणुवन कहलाता है।
समाधान-~म्बदारसंचन और स्वदारसंतोष में बड़ा अन्तर है । वदारसेवन में अम्बदारनिवृत्ति का भाव है। सेवन में सिर्फ प्रवृत्ति है । स्वदारसतोष, अणुव्रती का ही होगा। म्बदारलेवन नो अविग्न और मिथ्यात्वी भी कर सकता है।
आक्षेप (छ)-पेनाभेट लगाकर तो श्राप सिद्धा की अपेक्षा स्नातकों (बहनों) को भी पापी कहेंगे। ।
समाधान–कुल श्रादि की अपेक्षा पुलाक आदि पापी कहे जासकते हैं क्योंकि पुलाक श्रादि में पाये हैं । कोई जीव तभी पापी कहला सकता है जब कि उसके कपाय हो। कपायरहिन जीव पापी नहीं कहलाता । अहन कषायानीत है।
प्राक्षेप (ज)-यदि धर्मविरुद्ध कार्य भी ग्राह्य स्वीकार किये जॉय तब त्याज्य कौन से होंगे ?
समाधान-धर्मविरुद्ध कार्य, जिस अपेक्षा से धर्मानु