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अन्धेर है। रविषेण कहते हैं कि सीता जनक की पुत्री थी । गमको वनवास मिला था। वे अयोध्या में रहते थे। गुणभद्र कहते हैं सीता गवण की पुत्री थी । राम को वनवास नहीं मिला था। वे बनारस में रहते थे। दोनों कथानकों के स्थूल सूक्ष्म अंशामें पूर्व पश्चिम का सा फरक है। क्या यह गुरुपरम्परा का फल है ? कोई लेखक कहना है कि मैं भगवान महा. वीर का ही उपदेश कहता है तो क्या इसीसे गुरुपरम्पग सिद्ध होगई ? यदि गुरुपरम्पग सुरक्षित रही ती कथानकों में इतना भेद क्यों ? श्रावकों के मूलगुण कई तरह के क्यों ? क्या इस से यह नहीं मालूम होता है कि अनेक लेखकाने द्रव्य क्षेत्र का. लादि की दृष्टिसे अनेक तरह का कथन किया है। अनेकों ने जैनधर्म विरुद्ध अनेक लोकाचारों को जिनवाणी के नाम से लिस माग है, जैसे सामसेन श्रादि भट्टारकाने योनिपूजा आदि की घृणित घातें लिखी है । इसीलिये तो मोक्षमार्गप्रकाश में लिखा है कि "काऊ सत्यार्थ पदनिक समूहरूप जैन शास्त्रनि विषे अमत्यार्थपद मिलावै परन्तु जिन शास्त्र के पदनिविय ता पाय मिटावने का घालोकिक कार्य घटायने का प्रयोजन है। और उम पापी ने जो असत्यार्थ पद मिलाये हैं तिनि विपै कपाय पोपने का वा नोविक कार्य साधने का प्रयोजन है । पेसे प्रया. जन मिलता नाही, नातें परीक्षा करि शानी ठिगावते भी नाही, कोई मर्स होय सोही जैन शाख नाम करि ठिगा है।" कहिये ! अगर गुरु परम्पग में ऐसा कचरा या विष न मिल गया होता तो क्यों लिखा जाता कि मूर्ख ही जैन शास्त्र के नाम से उगाये जाते है । तात्पर्य यह है कि गुरु परम्परा के नाम पर बैठे रहना मृखता है। जेनी को तो कोई शास्त्र तभी प्रमाण मानना चाहिये जब वह जैन सिद्धान्त से मिलान खाता है । अगर वह मिलान न खाने तो श्रृत