________________
( १२१ )
प्रधानता का स्पष्ट उल्लेख किया है 'विषयान् इष्टकामिन्यादीन् ' - सागारधर्मामृत टीका । क्या इससे काम की प्रधानता नहीं मालूम होती ? विवाह के प्रकरण में तो यह प्रधानता और भी अधिक माननीय है, क्योंकि काम विषय को सीमित करने (श्रांशिक निवृत्ति) के लिये ही विवाह की श्यावश्यकता
| रसनेन्द्रिय घ्राणेन्द्रिय श्रादि के विषयों को सीमित करने के लिये विवाह की जरूरत नहीं है। विवाह के बिना अन्य इन्द्रियाँ उच्च खल नहीं होतीं, सिर्फ यही इन्द्रिय उच्छृंख होती है । इसलिये मागान्धर्मामृत टीका में परविवाह करण नाम के अतिचार की व्याख्या में पत्र पत्रों के विवाह की आव श्यकता लाते हुए कहा है कि 'यदि कन्यानिवादा न कार्यते तदा स्वन्दचारिणो स्यात् ततश्च कुलसमग्रत्तोकविरोधः स्यात् विनिविवाहातु पतिनियतस्त्रीत्वेन न तथा स्यात् । पप न्यायः पुत्रेऽपि विकल्पनीयः' अर्थात् 'अगर अपनी पुत्री का विवाह न किया जायगा तो वह स्वच्छन्दचारिणा हो जायगी, परन्तु विवाह कर देने से वह एक पति में नियत हो जायगी । इसलिये स्वच्छन्दचारिणी न होगी । यही बात पुत्र के लिये भी समझ लेना चाहिये अर्थात् विवाह से वह स्वच्छन्दनारी न होगा' । यहाँ पुत्र पुत्री के लिये
बात कही गई है वह विधवा पुत्रीके लिये भी लागू है । श्रक्षेपक में अगर थोडी जो कल होगी तो वह इन प्रमाणों से समझ सकेगा कि विवाह का मुख्य उद्देश्य क्या है, और वह विधवाविवाह से भी पूर्ण रूपमें सिद्ध होता है । सागारधर्मामृत के इस उल्लेख से श्राक्षेप नम्बर 'क' का भी समाधान होता है । आक्षेप (च ) -- समाज की अपेक्षा से सन्तानोत्पत्ति को मुख्य बतलाना भूल है । समाज में १-२ लटके न हुए न