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(१०७) अमल चान तो यह है कि ब्रह्मचर्याणुव्रत भी पक तरह का परिग्रहपरिमाणन है. परिग्रह परिमाण में सम्पत्ति तथा अन्य भागापमांग को वनाओं की मर्यादा की जाती है। ब्रह्म चर्य में काम सेबन मम्बन्धी उपभोगमामग्री की मगंदी की जाती है । परन्तु जिम प्रकार अहिमा के भीतर चागं चन शामिल होने पर भी पटना के लिये उनका अन्नग व्याख्यान किया जाना है उसी प्रकार ब्रह्मनांगुवन में परिग्रह परिमाण बत में अलग ज्याग्यान किया गया है। परिग्रह परिमाणवनमें परिग्रह की मांटा की जाती है, परन्त वह परिग्रह क्तिना होना चाहिये यह बान प्रत्यक व्यनि में उन्य नेत्रकालगाव पर निर्भर है । मर्यादा बाँध लेने पर सम्राट भी अपरिग्रहाणुव्रती है और मोटाशुन्य माधार निमगा भो पूर्ण परिग्रही है । ब्रह्मचयांवन के लिये प्राचार्य ने कह दिया कि अपनी काम. वासना की मीमित गऔर विवाह को कामवासना सीमामा नियन कर दिया । जो वैवाहिक बन्धन के भीतर रहकर काम. मेवन करना चद घायचर्यारणवनी है । यह बन्धन कितना दीना या गाढा हो यह सामाजिर परिस्थिति और वैयक्तिक माधनों के ऊपर निर्भर है । यहाँ पर एक पुरुष का अनेक स्त्रियों के माथ विवाह हो सकता है और विवाह ही मर्यादा है इसलिये वह ब्रह्मचर्याणुवी कहलाया। तिघ्यत में एक स्त्री अनेक पुरुषों के साथ एक साथ ही विवाह कर मरती है और विवाह ही मयांदा है इसनिय वहाँ पर अनेक पति वाती स्त्री भी अगुब्रह्मचारिणी है। श्रगुब्रह्मचर्य का भंग वही हागा जहाँ अविवाहित के माथामादि मेघन किया जायगा। इससे साफ मालूम होता है कि अायत के लिये प्राचार्य एक अनेक का बन्धन नहीं डालने, वे विवाद का बन्धन डालते है । मामाजिक परिस्थिति और साधन मामग्री में जो जिनने विवाह कर सक