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( ६ ) हमने विधवाविवाद को धार्मिक मिद्ध कर दिया है. इसलिये विवाहित विधवा जिनमार्ग पिन करने वाली नहीं कही जा सकती। प्रथया जय तक विधवाविवाह पर यह वादविवाद चल रहा है तय तक विधवाविवाद की धार्मिकता या अधार्मिकता की दुहाई न देना चाहिये । नहीं नो अन्योन्याश्रय श्रादि दार पायेंगे। इस श्राक्षेप से यह बात अच्छी तरह सिद्ध होती है कि पण्डिनाऊ जैनधर्म के अनुसार कोई स्त्री रण्डी बन जाय या हजार गुप्त पाप करें तो जिनमार्ग दूपिन नाही होता और छिनाल यनजाय तो भी नहीं होता. नवजात बच्चों के प्राण नेले नी भी नहीं होता, लेकिन अगर यह किसी एक पुरुष के साथ दाम्पत्य बन्धन स्थापित करले तो बेचारे पडि. ताऊ जैनधर्म की मौत हो समझिये । वास्तव में ऐसे जैनधर्म को व्यभिचार पन्थ समझना चाहिये ।
भालेप (च)-इन्द्रियतृप्ति करने में ही प्रसन्नता मानते हो तो आप शीक्से चार्वाक हो जाश्री ! (विद्यानन्द्र)
समाधान-रगडो यनाने के लिये, हजारों गुप्त पाप करने के लिये धर्मधुरन्धर कहताकर लोडेयाज़ी करने के लिये, न पाहत्या करने के लिये अगर कोई चार्वाक नहीं घनता तो विधवाविवाह के लिये चार्वाक बनने की क्या ज़रूरत है ? यदि जैनधर्म में इन्द्रियतृप्ति को बिलकुल स्थान नहीं है तो अविरत सम्यग्दृष्टि के लिये "णो इन्द्रियेसु विरदो" अर्थात् 'अविरत सम्यग्दृष्टि जीव पाँच इन्द्रिय के विषयों से विरक्त नहीं होता क्यों लिखा है ? जैनी लोग कोमल विस्तर पर क्यों सोते है ? स्वादिष्ट भोजन क्यों करते हैं? लडको वयों के होने पर भी विवाह क्यों करते है ? क्या यह इन्द्रिय विषय नहीं है ? अथवा क्या ऐसे सब जैनी चार्वाक है ? पुरुष जय दुसरा विवाह करता है तो क्या वैराग्य की भावना के