________________
( ७ ) मानी है. विद्यानन्द नहीं मानते है । सौर, परस्त्रीसेवन में वेश्यासेवन से अधिक पाप है जबक्रि ग्वैल स्त्री के साथ सम्भोग वेश्यालेधन से छोटा पाप है। इसका कारण संक्लेश की न्यूनता है। परस्त्रीसेवन में वेश्यालेषन की अपेक्षा इसलिये ज़्यादा सशता है कि उसमें परस्त्री के कुटुम्बियों का तथा पड़ोसियों का भय रहता है, और ज्याद. मायानगर करना पड़ता है । वेश्यासेवन में ये दोनों बातें कम रहती हैं । रखैल स्त्री में ये दोनों पाते बिलकुल नहीं रहती है । व्यभिचार को उन दोनों श्रेणियों से यह श्रेणी बहुत छोटी है, यह यात बिलकुल स्पष्ट है। इस नीसरी श्रेणीको व्यभिचार इसलिये कहा है कि ऐसी स्त्री से पैदा होने वाली सन्तान अपनी सन्तान नहीं कहलाती; और इनका परस्पर सम्बन्ध समाज की अनुमनि के बिना ही होता है और समाज की अनुमति के बिना ही छूट जाता है । विधवाविवाह में ये दोष भी नहीं पाये जाते। इससे मन्तान अपनी कहलाती है। बिना समाज को सम्मति के न यह सम्बन्ध होता है न टना है। व्यभिचार का इससे कोई ताल्लुक नहीं। विवाह के समय जैसे अन्य कुमारियाँ कन्या (दुलहिन) कहा नाती है, उसी प्रकार विवाह के समय विधवा भी कन्या कहा लाती है। व्यभिचार की नीन श्रेणियाँ और विधवाविवाह का उनसे याहर रहना इतना स्पष्ट है कि विशेष कहने की ज़रूरत नहीं है । जब विधवाविवाह परस्त्रीसेवन नहीं है नव परस्त्री. सेवनको व्यभिचार मान लेनेसे व्यभिचार कैसे सिद्ध होगया ? भाक्षेपक, यहाँ पर अनिग्रह में निग्रह का प्रयोग करके म्बय निरनुयोज्यानुयोग निग्रहस्थान में गिर गया है।
आक्षेप (ज)-जहाँ कन्या और वर का विवाहविधि के पूर्व सम्बन्ध हो जाता है वह गांधर्व-विवाह है । इसमें कन्या के साथ प्रवीचार होता है; इसलिये व्यभिचार श्रेणी से हलका