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( ५२ ) विशेष भर त्रिलोक विष नरक स्वर्गादिक ठिकाने पहिचानि पाप ने विमुख होय धर्म विपे लागे हैं ।
"बहुरि करणानुयोग विपे छद्मस्थान की प्रवृत्ति के अनु. सार (आचारण) वर्णन नाही । केवलज्ञान गम्य (श्रात्म परि. णाम) पदार्थनिका निरूपण है। जैसे-कोई जीव नो द्रव्यादिक का विचार करें है वा व्रतादिक पाले हैं, परन्तु अंतरंग सम्यक चारित्र नहीं तातै उनको मिथ्यादृष्टि अवती कहिये है । बहुरि कैई जीव द्रव्याटिक का वा व्रतादिक का विचार-रहित है अन्य कार्यानि विषै प्रवते हैं वा निद्रादि करि निर्विचार होय रहे हैं, परन्तु उनके नम्यक्तादि शक्ति का सद्भाव है नाते उन को सम्यक्ती वा व्रती कहिये है । बहुरि कोई जीव के कपायनि की प्रवृत्ति नो धनी है पर वाकै अन्तरङ्ग कपाय-शक्ति थारी है नोवाको मन्दकषाई कहिये हैं। पर कोई जीव के कपायनि की प्रवृत्ति तो थोरी है पर वाकै अन्तरङ्ग कपाय-शक्ति धनी है नो वाको तीव्र कषायी कहिये है।
"बहुरि कहीं जाकी व्यक्ति तो किछु न भासै नो भी सूक्ष्म शक्ति के सद्भावते ताका तहाँ अस्तित्व कह्या । जैसे मनि के अब्रह्म कार्य किछू नाहीं तो भी नवम गुणस्थान पर्यन्त मैथुन सज्ञा कही"।
"बहुरि करणानुयोग सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रादिक धर्म का निरूपण कर्म प्रकृतीनिका उपशमादिक्र की अपेक्षा लिये सूक्ष्म शक्ति जैसे पाइये तैसे गुणस्थानादि विनिरूपण कर है"।
इन उद्धरणों से पाठक समझ जायेंगे कि करणानुयोग में चारित्रादिक का भी निरूपण रहता है । हॉ, करणानुयोगका
+ जैसे दक्षिण के शान्तिसागरजी। -सम्पादक
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