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मी वह पूर्व प्रतिज्ञा पर दृढ रहे तो उसमें कामाधिक्य ( काम की अधिकता ) नहीं कहा जा सकता । और दूसरी स्त्री जो सवा ही वनी रही और प्रतिदिन या दो दो चार चार दिन में कम सेवन करती है उसमें कामाधिक्य है। काम की अधिकता कामाधिक्य है, न कि काम के साधनों का परिवर्तन । इसलिये पति या पत्नी के बदल जाने से कामाधिक्य नहीं कहा
जा सकता।
लोकलजा के नाम पर अन्याय या अत्याचार सहना पाप है । धर्मविरुद्ध कार्य में लोकलला से डरना चाहिये, लेकिन श्रख मूँदकर लोक की बानों को धर्मसंगत मानना मूर्खता है । जो काम यहाँ लोकलजा का कारण है वही अन्यत्र लोकलज्ञा का कारण नहीं है । कहीं कहीं तो धर्मानुकूल काम भी लोकलजा के कारण होजाते हैं जैसे, श्रन्तर्जातीय विवाह, चाग्लॉक में विवाह, स्त्रियों के द्वारा भगवान की पूजा, प्रज्ञाल, गाँवो धर्मोपदेश देना पर्दा न करना, वस्त्राभूषणोंमें परिवर्तन करना, निर्भीकता से बोलना, स्त्रीशिक्षा, अत्याचारी शासक या पच i free tear दि । किस किस यात में लोकलजा का विचार किया जायगा ? ज़माना तो ऐसा गुज़र चुका है कि जैनधर्म धारण करने से ही लोकनिन्द्रा होती थी, दिगम्बर वेप धारण करने से निन्दा होती थी । ता क्या उसे छोड देना चाहिये ? और श्राजकल भी ऐसे लोग पडे हुए है-जिनमें श्रक्षेपक का भी समावेश है - जो कि भगवान महावीर की जयन्ती मानना भी निन्दनीय समझते है । जब ऐसे धर्मानुकूल कार्यों की निन्दा करने वाले मौजूद है तब लोकनिन्दा की कहाँ तक पर्वाह की जाय ? इसके अतिरिक्त धर्मविरुद्ध कार्य भी लोक-प्रशंसा के कारण हो जाते हैं या लोक- निन्दा के कारण नहीं होते। जैसे- सीथियन जाति में प्रत्येक पुरुष का प्रत्येक