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( ५६ ) का अतिचार सिद्ध किया है वहाँ लिखा है कि "चास्य मार्यादिना परेण किञ्चित्काल पग्गृिहीनां वेश्यां गच्छतो भगः कथ. चित्परदारत्वात्तस्याः । लोकतु परदारवास्टेर्न भंगः इति भगाभग रूपोतिचारः" । इस वाक्य पर विचार कीजिये।
जहाँ भग ही भंग है वहाँ अनाचार माना जाता है। जहाँ अभग ही है वहाँ व्रत माना जाता है । जहाँ भग और लाभग दोनों है वहाँ अतिचार माना जाता है। ऊपर के वाक्य में वेश्या-सेवन को भंग और अमरूप मान कर अतिचार सिद्ध किया गया है । यहाँ देखना इतना ही है कि भन्न अंश क्या है और अमन अंश क्या है ? और उनमें से कौनमा प्रश विधवाविवाह में पाया जाता है ? ग्रन्थकार कहते है कि वेश्यासंवन में चूत का भग इसलिये होना है कि वह दूसरों के द्वारा ग्रहण की जाती है। मतलब यह कि वेश्या के पास बहुत से पुरुप जाते है और सभी पैसा दे देकर उसे अपनी अपनी स्त्री बनाते है । इसलिये वह परपरिगृहोता हुई और उसके सेवन से चूत का भङ्ग हुश्रा । लेकिन लोक में वह परन्त्री नहीं मानी जाती (क्योंकि पैसा लेने पर भी पूर्णरूप से वह किसी की स्त्री नहीं बनती) । इसलिये उस के सेवन में व्रत का अभङ्ग (रक्षा) हुा । पाठक देखें कि विधवाविवाह में वन का अभङ्ग (रक्षा) ही है, भङ्ग बिलकुल नहीं है । लोक व्यवहार ले, कानून की दृष्टि से, तथा परस्त्री सेवन में जो सक्लेश होता है वह सक्लेश न होने से पुनर्विवाहिता स्वस्त्री ही है, इसलिये इस लेवन में वेश्यालेवन की अपेक्षा कई गणी वत. रक्षा (अभहांश ) है । साथ ही वेश्या में तो परपरिग्रही. तता है किन्तु इस में नाममात्र को भी परपरिगृहीतता नहीं है। जब कोई मनुष्य वेश्या के पास जाता है तब वह उस का पूर्ण अधिकारी नहीं बन सकता, क्योंकि उतना