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( ४० ) पॉचा पाप कर सकता है, कुमारीविवाह कर सकता है, तब विधवाविवाह भी कर सकता है।
आक्षेप (8)-विधवाविवाह इसीलिए अधर्म नहीं है कि वह विवाह है बल्कि इस लिए अधर्म है कि श्रागम विरुद्ध है। "कोई प्रवृत्यात्मक कार्य धर्म नहीं है' यह लिखना सर्वथा असद्गत और अज्ञानतापूर्ण है। विवाहको निवृत्त्यात्मक मानना भी व्यर्थ है । अगर निवृत्यात्मक होता तो पॉच गुणस्थान के भेटों में निवृत्तिस्प ब्रह्मचर्य प्रतिमाकी श्रावश्यकताही क्या थी ?
समाधान-विधवाविवाह भागमविरुद्ध नहीं है, यह हम सिद्ध कर चुके है और आगे भी करेंगे। यहाँ हमारा कहना यही है कि अगर विवाह अधर्म नहीं है तो विधवाविवाह भी अधर्म नहीं है। अगर विधवाविवाह अधर्म है तो विवाह भी अधर्म हैं। सच पूछा जाय तो जैनधर्म के अनुसार कोई भी प्रवृत्यात्मक कार्य धर्म नहीं है। क्योंकि धर्म का मतलब है रत्नत्रय या सम्यक्चारित्र । सम्यक्चारित्रका लक्षण शास्त्रकारों ने "वाह्याभ्यन्तर क्रियाओं की निवृत्ति" किया है। जैसे कि"संसार कारण निवृत्तिम्प्रत्यागूर्णस्य ज्ञानवतः वाहाभ्यन्तर क्रिया विशेषो परमः सम्यक्चारित्रम् (गजवार्तिक और सर्वार्थसिद्धि)
भवहेतु प्रहाणाय वहिरभ्यन्तरक्रियाविनिवृत्तिः परं सम्यक् चारित्रम् मानिनो मतम् ।
-श्लोक वार्तिक । वहिरमंतर रिया रोहो भवकारण पणासट्ठम् । गाणिस्स ज जिणुत्त तं परमम् सम्मचारित्तम् ॥
द्रव्यसंग्रह। चरणानुयोग शास्त्रों में भी इसी तरह का लक्षण है