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से निवृत्ति पायी जाती है और व्यवहार चारित्र में अशुभ से ही निवृत्ति पायी जाती हैं । व्यवहार चारित्र की चारित्र के साथ यही अांशिक समानता है । यही कारण है कि व्यवहार चारित्र भी चारित्र कहा गया | जय विवाह, व्यवहार धर्म है तो उसमें किसी न किसी रूपमें निवत्यात्मकता होना चाहिये। इसीलिये हमने कहा है कि विवाह से परस्त्रीसेवन रूप अशुभ परिणति से निवृत्ति होती है। यह निवृत्ति कुमारीविवाह से भी होती है और विधवाविवाह से भी होती है।
"विवाह अगर निवृत्यात्मक है नो ब्रह्मचर्य प्रतिमाक्यों बनाई!"-आने पकका यह कथन तो बडा विचित्र है। अरे भाई विवाह में जितनी निवृत्ति है उस से ज्यादः निवत्ति ब्रह्मचर्य में है । पहली क्लास में भी शिक्षा दी जाती और दूसरी में भी दी जाती है तो क्या यह कहा जासकता है कि पहिली क्लास में शिक्षा दी जाती है तो दूसरी श्यों बनाई ? अगर कोई पूछे कि मुनि तो छठ गुणस्थान में बन जाता है, फिर सातवॉ क्यों बनाया ? पाँच पापों का त्याग तो अणुव्रतों में हो जाता है फिर महानत क्यों बनाये ? सामायिक और प्रांषधोपवास नो दूसरी प्रतिमा में धारण किये जाने है फिर इन नामों की तीमगे चौथी प्रतिमा क्यों बनाई ? व्यभिचार और परिग्रह का त्याग तो ब्रह्मवर्गणुव्रत और परिग्रह परिमाण बन में हो जाता है फिर सातवीं और दशमी प्रतिमा क्यों बनाई ? नो इन सब प्रश्नों का क्या उत्तर दिया जायगा?
उत्तर यही दिया जायगा कि पहिली अवस्याओं में थोडा त्याग है और धागे की अवस्थाओं में ज्यादः त्याग है। यही उत्तर विवाह के विषय में है । विवाह में थोडा त्याग है-ब्रह्मचर्य में ज्याट त्याग है।
देव पूजा आदि प्रवृत्यान्मक है परन्तु जब वे धर्म कहे