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( 8 ) ममाघान-हमने सम्यक्त्वी को पञ्चपापोपसेवी नहीं लिखा है, पॉत्र पार करने वाल लिखा है । भले ही वह उपभोग हो।उसकी रुचिपूर्वक प्रवृत्तितो पार में ही क्या, पुण्य में भी नहीं होती। वह नो दोनों को हेय और शुद्ध परिणति को उपादेय मानता है। उसकी रुचि न नो कुमारी-विवाह में है न विधवाविवाह में, किन्तु अप्रत्याख्यानावरणादि कपायों के उदय मे वह अरुचिपूर्वक जैसे कुमारीविवाह करता है उसी प्रकार विधवाविवाह भी करता है। उसकी अरुचि विधवाविवाहको गंके और कुमारी विवाह को न रोके, यह कैसे हा सकता है ? आक्षेपक का कहना है कि "पाप तो सदा सर्वथा घोर पापबन्धका कारण है", नत्र तो सम्यग्दृष्टि को भी घोर पापबन्ध का कारण होगा; क्योंकि वह भी पापोपभोगो है। लेकिन आक्षेपक सम्यग्दृएिको घोर पाप यन्ध नहीं मानता। न उस का 'सदा सर्वथा' शब्द आपही पण्डित हो जाता है। अमृत. चन्द्र का हवाला देकर तो श्राक्ष'पक ने बिलकुल ऊटपटॉग बका है, जिस से विधवाविवाह विरोध का कोई ताल्लक नहीं। सम्यक्त्व तो यन्ध का कारण है ही नहीं, किन्तु उसके साथ रहने वाली कपाय बन्ध का कारण जरूर है। यही कारण है कि अविरत सम्यग्दृष्टि ७७ प्रकृतियों का बन्ध करता है जिन में यहभाग पाप प्रकृतियों का है। मम्यक्त्व और स्वरूपाचरण होने से उस के १६+ २५४१ प्रकृतियों का बन्ध रुकता है। सम्यग्दृष्टि जीव अगर विधवाविवाह करे तो उसके इन ४१ प्रकृतियों का बन्ध नहीं होगा। हां, बाकी प्रकृतियोंका बन्धहो सकेगा । सो वह नो कुमारी विवाह करने पर भी हो सकेगा और विवाह न करने पर भी हो सकेगा । हमारा कहना तो यही है कि जब सम्यग्दृष्टि जीव-अरुचि पूर्वक ही सही