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( ३७ ) कारण है तो वह मिद्धों में भी होना चाहिये, क्योंकि उनके भी निश्चय-सम्यक्त्व है। परन्तु मिद्धों में रागादि परिणति न होने से सराग सम्यक्त्व हो नहीं सकता। तब वह उपादान कारण कैसे कहलाया ? यदि व्यवहार निश्चय को पूर्वोत्तर पर्याय मान कर उपादान उपादेय भाव माना हो तो दोनों का साहचर्य ( साथ रहना ) बतलाना व्यर्थ है । नथा इस दृष्टि से तो सम्यक्त्व के पहिले रहने वाली मिथ्यात्व पर्याय भी उपादान कारण कहलायगी। तब सम्यक्त्व की उपादानता में महत्व ही क्या रह जायगा? खैर, हमारा कहना नो यही है कि विधवाविवाह निश्चय सम्यक्त्व और व्यवहार सम्यक्व के प्रशमादि गुणों के विरुद्ध नहीं है । इमलिये व्यवहार सम्यक्त्व की दुहाई देकर भी उस का विरोध नहीं किया जा सकता।
माक्षेप (ज)-विवाहों की अष्ट प्रकार की संख्या से वाह्य होने के कारण और इसीलिये भगवत् प्रतिपादित न होने के कारण क्या प्रास्तिक्य सम्यग्दृष्टि विधवाविवाह को मान्य ठहरा सकता है?
समाधान-विवाह के पाठ भेदों में तो बालविवाह, वृद्ध विवाह, युवतीविवाह, सजातीयविवाह, विजातीयविवाह, अनुलोमविवाह, प्रतिलोमविवाह, सगोत्रविवाह, विगोत्र विवाह, कुमारीविवाह, विधवाविवाह, श्रादि किसी नाम का उल्लेख नहीं है तब क्या ये लव आस्तिक्य के विरुद्ध है ? तब तो कुमारी विवाह भी आस्तिक्य के विरुद्ध कहलाया, क्योंकि पाठ भेदों में कुमारी विवाह का भी नाम नहीं है। अगर कहा जाय कि कुमारीविवाह, सजातीय विवाह आदि विवाहों के उपर्युक्त पाठ आठ भेद है तो बल, विधवाविवाह के भी उपर्युक्त आठ भेद सिद्ध हुए। जेसे कुमारीविवाह