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( ३२ ) दुर्मर्पण की बातो में श्राकर अर्कीर्ति जयकुमार को मार कर उसकी वरमाला छीनने को उतारू हो गया । इसी. लिये वह कहता है कि
द्विधा भवतु वा मा वा वलं तेन किमाशुगाः। माला प्रत्यानयिष्यति जयवक्षो विभिद्यमे ॥ ४४। ६४ ॥
अर्थात् सेना दो भागों में बट जाय चाहे नहीं, मेग उस से क्या ? मेरे तो वाण जयकुमार का वक्षस्थल चीरकर वरमाला लौटा लायेंगे ।
पाठक विचार करें कि वरमाला को छीन लेना सुलोचना को ग्रहण कर लेना था, जिसके लिये अर्ककीर्ति तैयार हुआ था। निःसन्देह यह काम वह जयकुमारसे ईध्याके कारण कर रहा था । परन्तु अर्ककीर्ति का अनवद्यमति नामका मन्त्री जानता था कि सुलोचना सरीखी गजकुमारी अपनी इच्छा के विरुद्ध किसी को नहीं वर सकती । इसीलिये तथा अन्य प्राप. त्तियों की आशङ्का से उसने अर्ककीर्ति को समझाया कि 'तुम चक्रवर्ती के पुत्र होकर के भी क्या अनर्थ कर रहे हो? तुम्ही से न्याय की रक्षा है और तम्ही ऐसे अन्याय कर रहे हो! तुम इस यग के परस्त्रीगामियों में पहिले नम्बर के परस्त्रीगामी मत वनो'।
परदारामिलापस्य प्राथम्यं मा वृथा कृथाः। अवश्यमाहताप्येपान कन्याते भविष्यति ॥४४॥४७॥
अनवद्यमति कीवाते सुनकर अर्ककीर्ति लजित तो हुआ. परन्तु जयकुमार से बदला लेने का और सुलोचना छीनने का उसने पक्का निश्चय कर लिया था, इसलिये युद्ध का प्रोग्राम न बदला । हाँ, अपनी नैतिक सफाई देने के लिये उसने अपने मन्त्री को निम्नलिखित वाक्य बोल कर झॉसा अवश्य दिया - .