Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
गुरुता के गौरव देवेन्द्र कुमार शास्त्री प्रधान संपादक, "जैन संदेश" नीमच, म०प्र०
श्रीमद् रायचन्द्र और बड़े वर्णी जी से प्रभावित होने के पश्चात् यदि किसी जीवन से जुड़ सका हूँ, तो वह पूज्य बड़े पंडित जी का है। चादर के भीतर छिपा हुआ उनका सरल जीवन संभवत: इसलिये निकट आ सका है कि उसमें कहीं भेदभाव या दुराव नहीं है । वह वास्तविकता और यथार्थ के अधिक निकट है । मैं दो दशक पूर्व उनके सम्पर्क में पहली बार आया। उनकी यथार्थता और स्पष्टता से मुझे समाज में विद्यमान दुर्भेदी षड्यंत्रों का आभास हुआ।
पंडित जी श्रावकाचार के सजीव संस्थान हैं, आत्मध्यान के हितकर चिंतक हैं, समाज के यथार्थ मार्गदर्शक हैं, अनेक संस्थाओं के मूर्तिमान चालक हैं। उनसे जैनों का ही नहीं, जैनेतरों का भी भला हुआ है। आज भी पंडित जी में बालक जैसी सरलता, निश्छलता, न्यायाधीश-जैसी न्यायबुद्धि, वक्ता-जैसी वाक्पटुता, व्याख्याकारजैसी विवेचन शैली और सिद्धान्तकार-जैसी दृढ़ता एवं साहित्यकार-जैसी संवेदनशीलता लक्षित होती है। उनके दृष्टान्तों एवं उदाहरणों में गुरुता का भान कराने वाली निधि में गुण ही रहे हैं। गुरु गुरु ही होते हैं-अनुभव में, युक्ति में, कला-कौशल में-कहीं से भी परखिये, वे अपनी गुरुता से भरपूर मिलेंगे। यह उक्ति पंडित जी के लिये पूर्णत: चरितार्थ होती है । ऐसे गुरु की गुरुता को शतशत नमन ।
बड़े पंडित जी का बड़प्पन डॉ. प्रेमसुमन जैन उदयपुर
मैं कटनी विद्यालय में १९५४-६० में रहा। वहां से मैंने मध्यमा पास की। मैं पंडित जी का अत्यंत प्रिय छात्र रहा । सभी लोग वहाँ पंडित जी को 'बड़े पंडित जी' कहते थे। यह बात मेरी समझ में तभी आई जब मैंने उनका स्वयं अनुभव किया। हम सभी लोग प्रारंभ में आदर और भय के कारण उनको सम्मान देते थे, पर धीरे-धीरे यह सहज रूप पा गया।
पंडित जी स्वयं को शिक्षा-संस्था के कर्मचारी या प्रधानाध्यापक नहीं, अपितु उसका अंग एवं पर्याय मानते थे। यही कारण है कि इस संस्था ने इतनी प्रतिष्ठा पाई और आज के अनेक पीढ़ी के विद्वान् इसके स्नातक हैं । मेरे साथ घटित अनेक घटनायें पंडित जी के बड़प्पन की निशानी हैं।
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