Book Title: Jaganmohanlal Pandita Sadhuwad Granth
Author(s): Sudarshanlal Jain
Publisher: Jaganmohanlal Shastri Sadhuwad Samiti Jabalpur
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पं० जगन्मोहनलाल शास्त्री साधुवाद ग्रन्थ
चलती फिरती जिनवाणी गुलाबचन्द्र पुष्प टीकमगढ़
भ० महावीर की देशना को हृदयङ्गम कर उसके तलस्पर्शी ज्ञान द्वारा जिनवाणी के प्रचार-प्रसार एवं अनेक ग्रन्थों के प्रकाशन से आपका जीवन स्वयं ही चलती फिरती जिनवाणी बन गया है। मेरी कामना है कि "यावत चंद्र दिवाकरौ" समाज को आपका मार्गदर्शन प्राप्त होता रहे।
अनोखे व्यक्तित्व के धनी धर्मचन्द सरावगी भूतपूर्व पार्षद एवं विधायक, कलकत्ता
संयोग की बात है कि १९४४ में पंडितजी भी रथ-यात्रा देखने कलकत्ता पधारे और जैन-भवन में ठहरे । पंडितजी के व्याख्यान कई शास्त्र सभाओं में हुए। उसे लोग बहुत रूचि लेकर सुनते थे। पंडितजी का व्यक्तित्व भी अनोखा था, खादी पहने लोगों को बहुत प्रभावित करते थे।
संयोग से ९ नवम्बर १९४४ को मेरा विवाह तय हुआ। दोनों परिवार जैन थे और चाहते थे कि जैन-पद्धति से विवाह हो । उस समय कलकत्ते में विवाह कराने के लिए जैन पंडित उपलब्ध नहीं थे। पंडितजी ने यह विवाह बिना कुछ रूपये-पैसे लिए सुन्दर ढंग से कराया और मैं मानता हूँ कि उसका ही परिणाम है कि देखते-देखते ४५ वर्ष पूरे होने को आये । हम दोनों पति-पत्नी स्वस्थ रहकर जीवन-यात्रा और धर्म-कर्म आदि का पालन कर रहे हैं । यह पंडितजी की निःस्वार्थ सेवा का ही प्रभाव है । मैं वीर प्रभु से प्रार्थना करता हूँ कि उन्हें स्वस्थ रखकर शन्तायु करें।
सदाशयी पंडित जी स्व० श्री भरमल जैन जबलपुर
१९६२ में मैंने 'चीनी चुनौती और हम' नामक अपने जीवन का प्रथम लेख जैन-सन्देश के तत्कालीन संपादक शास्त्री जी की सेवा में प्रकाशनार्थ, ससंकोच, भेजा । मेरी आशा के विपरीत, वह लेख प्रशंसनीय संपादकीय टिप्पणी के साथ प्रकाशित हआ। यह मेरे लेखन के लिए पण्डित जी की परोक्ष प्रेरणा थी। मेरे जैसे अनेक उदीयमान लेखकों के भी वे प्रेरक बने, यह मुझे ज्ञात है।
मेरी उनसे घनिष्ठता बढ़ती गई। एक बार मैं एक धृष्टता कर बैठा। पण्डित जी प्रायः जबलपुर आते रहते थे । मैंने एक बार उन्हें दो किलो सुपारी लाने के लिए निवेदन किया। दूसरे दिन मैंने देखा कि पण्डित जी सुपारी का झोला लिये मेरे घर के सामने खड़े हैं। उनकी इस सदाशयता के लिए मेरा सिर उनके पवित्र चरणों में झुक गया। मैं उनकी शत-शत वन्दना करता हूँ।
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