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धर्मामृत ( सागार) ___ अथ आप्तोपदेशसंपादितशुश्रूषादिगुणः सम्यक्त्वहीनोऽपि तद्वानिव सद्भूतव्यवहारभाजामाभासत इति निदर्शनेन प्रव्यक्तीकरोति
शलाकयेवाप्तगिराऽऽप्तसूत्रप्रवेशमार्गो मणिवच्च यः स्यात् ।
होनोऽपि रुच्या रुचिमत्सु तद्वद् भूयादसौ सांव्यवहारिकाणाम् ॥१०॥ सूत्रं-परमागमस्तन्तुश्च । प्रवेशमार्ग:-शुश्रूषादिगुणः छिद्रं च । हीनोऽपि-रिक्तोऽल्पो वा । ६ रुच्या-शुद्धया दीप्त्या च । रुचिमत्सु-सुदृष्टिषु दीप्तिमन्मणिषु च मध्ये । तद्वत्-रुचिमानिव । भायात्आभासेत् । सांव्यवहारिकाणां-सुनयप्रयोक्तृणाम् ।।१०॥ अथ सागारधर्मचरणाधिकारिणमगारिणं लक्षयितुमाह
न्यायोपात्तधनो यजन् गुणगुरुन् सद्गीस्त्रिवर्ग भजनन्योन्यानुगुणं तदर्हगृहिणीस्थानालयो ह्रीमयः। युक्ताहारविहारआर्यसमितिः प्राज्ञः कृतज्ञो वशी
शृण्वन् धर्मविधि दयालुरघभीः सागारधर्म चरेत् ।।११।। और मिथ्याधर्ममें मध्यस्थ है वह भी उपदेशका पात्र है। उसे भी धर्ममें व्युत्पन्न बनाना चाहिए ॥९॥
आगे कहते हैं कि जिनेन्द्र के उपदेशसे सेवा आदि सद्गुणोंको प्राप्त करनेवाला भद्र पुरुष सम्यक्त्वसे हीन होनेपर सद्व्यवहारी पुरुषोंको सम्यग्दृष्टीकी तरह मालूम होता है
जैसे मणि वज्रकी सुईके द्वारा बींधी जानेपर धागेके मार्गका प्रवेश पाकर जब अन्य मणियोंमें प्रविष्ट हो जाती है तो उसमें चमक कम होनेपर भी चमकदार मणियोंमें मिलकर वह भी चमकदार दीखने लगती है। उसी तरह जो भद्र पुरुष जिन भगवान्की वाणीके द्वारा ऐसा हो जाता है कि उसके चित्तमें परमागमके वचन प्रवेश करने लगते हैं, वह भले ही श्रद्धासे रहित हो, किन्तु सुनयके प्रयोगमें कुशल व्यवहारी पुरुषोंको सम्यग्दृष्टियोंके मध्यमें उन्हींकी तरह लगता है ॥१०॥
विशेषार्थ-भद्र पुरुषको आगामीमें सम्यक्त्व गणके योग्य कहा है। जब वह परमागमका उपदेश श्रवण करने लगता है तो उसके हृदयमें वह उपदेश अपनी जगह बनाना प्रारम्भ कर देता है। उसके मनमें उसके प्रति जिज्ञासा होती है। भले ही उसकी इसपर आज श्रद्धा न हो किन्तु नय दृष्टि से वह मनुष्य भविष्यमें सम्यग्दृष्टि होनेकी सम्भावनासे सम्यग्दृष्टि ही माना जाता है ॥१०॥
इस प्रकार उपदेश देने और सुननेवालोंकी व्यवस्था करनेके बाद सागार धर्मका आचरण करनेवाले गृहस्थका लक्षण कहते हैं
न्यायपूर्वक धन कमानेवाला, गुणों, गुरुजनों और गुणोंसे महान् गुरुओंको पूजनेवाला, आदर, सत्कार करनेवाला, परनिन्दा, कठोरता आदिसे रहित प्रशस्त वाणी बोलनेवाला, परस्परमें एक दूसरेको हानि न पहुँचाते हुए धर्म, अर्थ और कामका सेवन करनेवाला, धर्म,
१. न्यायसंपन्नविभवः शिष्टाचारप्रशंसकः । कुलशीलसमैः सार्धं कृतोद्वाहोऽन्यगोत्रजैः ।।
पापभीरुः प्रसिद्धं च देशाचार समाचरन् । अवर्णवादी न क्वापि राजादिषु विशेषतः ॥
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