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चतुर्दश अध्याय ( पंचम अध्याय )
निर्लाञ्छनकर्म -- वृषभादेर्नासावेधादिना जीविका । उक्तं च---
'नासावेधोंऽकनं मुष्कछेदनं पृष्ठगालनम् ।
कर्णकम्बलविच्छेदो निर्लाञ्छनमुदीरितम् ॥' [ योग. ३।११२ ]
मुष्कछेदनं गवाश्वादीनां वर्धितकीकरणम् । पृष्ठगालनं करभाणामेव । निर्लाञ्छनं नितरां लाञ्छनंअंगावयवच्छेदः । असतो पोषणं प्राणिघ्नप्राणिपोषो भाटिग्रहणार्थं दासीपोषश्च । उक्तं च
'सारिकाशुकमार्जारश्वकुक्कुटकलापिनाम् ।
पोषो दास्याश्च वित्तार्थं मसती पोषणं विदुः ॥' [ योग. ३१११३ ]
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'व्यसनात्पुण्यबुद्धया वा दवदानं भवेद्विधा ।
सरः शोषः परः सिन्धुहृदादेरम्बु संप्लवः ||' [ योगशा. ३।११४ ]
ननु चाङ्गारकर्मादयः कथं खरकर्मव्रतेऽतिचाराः खरकर्मरूपा एव ह्येते । सत्यं किन्त्वनाभोगादिना क्रियमाणा अतिचारा उपेत्य क्रियमाणास्तु भङ्गा एवेत्यस्ति विशेषः । केचित् - सितपटाः प्राहुः । अतिजडान् प्रति । जडान् प्रति पुनः 'पल' इत्यादिप्रबन्धेन प्राक् प्रणीतमेव ॥ २३ ॥
अथ शिक्षा व्रतविधानार्थमाह
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दवदानं दवाग्नेस्तृणादिदहनार्थं वितरणम् । तच्च फलनिरपेक्षतात्पर्याद् वनेचरैर्वह्निज्वालनं व्यसनजमुच्यते । पुण्यबुद्धिजं तु यथा मदीये मरणकाले इयन्तो मम श्रेयोऽथं धर्मदीपोत्सवाः करणीया इति पुण्यबुद्धया क्रियमाणम् । तृणदाहे सति नवतृणाङ्कुरोद्भवाद् गावश्चरन्तीति वा । क्षेत्रे वा सस्यसम्पत्ति वृद्धयेऽग्निज्वालनम् । अत्र जीवकोटीनां वधो व्यक्त एव । सरःशोषो धान्यवपनाद्यर्थं जलाशयेभ्यो जलस्य सारण्याऽऽकर्षणम् । तत्र च जलस्य तद्गतानां त्रसानां तत्प्लावितानां च षण्णां जीवनिकायानां घात इति दृष्यत्वम् । उक्तं च
निकाली जाती है तो सूक्ष्म त्रस जन्तुओंके घातके साथ अनन्तकाय पत्तोंके समूहका नाश अवश्य होता है, उसके बिना लाख प्राप्त नहीं हो सकती । यहाँ लाखसे अन्य भी सावध वस्तुएँ ली गयी हैं जैसे मनसिल, टंकण - एक विशेष प्रकारका खार । ये बाह्य जीवोंके घातक हैं। इसी तरह धतूरा और उसकी छाल मदकारक है अतः इनका व्यापार पापका घर है । १३. दन्तवाणिज्य – जहाँ हाथी आदि पैदा होते हैं वहाँके भीलोंको द्रव्य देकर हाथी के दाँत खरीदना । इसमें दोष यह है कि भील धनके लोभ में हाथीको मार डालते हैं। वैसे दन्त आदि व्यापार में कोई दोष नहीं कहा है । यहाँ हाथीके दाँतसे अन्य त्रसजीवोंके अवयव भी गृहीत होते हैं । जैसे चमरी गायके बाल, उल्लू आदिके नख, शंख आदि हड्डियाँ, हिरणों की खाल, हंसोंके रोम इन सबका व्यापार नहीं करना चाहिए । १४. केशवाणिज्य - मनुष्य, गाय, बैल, घोड़े आदिका व्यापार करना केशवाणिज्य है । इसमें दोष यह है कि उन्हें पराधीन रखकर उनका बन्धन आदि किया जाता है, भूख-प्यासकी पीड़ा दी जाती है । १५. रसवाणिज्य – नवनीत, चर्बी, मधु, मदिरा आदिका व्यापार करना । मक्खन में सम्मूर्छन जन्तु होते हैं। मधु, चर्बी, मदिरा आदि जीवोंके घातसे पैदा होते हैं । नशा तो होता ही है उसमें रहनेवाले कृमियोंका भी घात होता है इसलिए उनका व्यापार सदोष होने से बुरा है । ये सब व्यापार श्रावकको नहीं करने चाहिए ।।२१-२३ ॥ इस प्रकार गुणव्रतोंका प्रकरण समाप्त होता है । अब शिक्षाव्रतोंका कथन करते हैं
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