Book Title: Dharmamrut Sagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 334
________________ षोडश अध्याय ( सप्तम अध्याय) २९९ अथोपसंहरति-- इति चर्चा गृहत्यागपर्यन्तां नैष्ठिकाग्रणीः । निष्ठाप्य साधकत्वाय पौरस्त्यपदमाश्रयेत् ॥३६॥ पौरस्त्यं-एकादशम् ॥३६॥ अथोद्दिष्टविरतस्थानं त्रयोदशभिः श्लोकाचष्टे तत्तद्वतास्त्रनिभिन्नश्वसन्मोहमहाभटः। उद्दिष्टं पिण्डमप्युज्झेदुत्कृष्टः श्रावकोऽन्तिमः ॥३७॥ श्वसन-किचिज्जीवन । येन जिनरूपतां न प्राप्नोति । उद्दिष्टं-आत्मोद्देशेन कल्पितं नवकोटिभिरविशुद्धमित्यर्थः । पिण्डमपि । अपिशब्दादुपधिशयनासनादि। उत्कृष्टः-~-अयमित्यंभूतनयादुत्कृष्टोऽनुमतिविरतस्तु ९ नैगमनयादित्युभो 'भिक्षको प्रकृष्टो च' इति वचनान्न पौनरुक्त्यदोषः ॥३७॥ अब इसका उपसंहार करते हैं इस प्रकार दर्शनिक आदि नैष्ठिक श्रावकोंमें मुख्य अनुमतिविरत श्रावक घर त्यागने पर्यन्तकी चर्याको समाप्त करके आत्मशोधनके लिए ग्यारहवे उद्दिष्टविरत स्थानको स्वीकार करे ॥३६॥ अब तेरह श्लोकोंसे उद्दिष्टविरत स्थानको कहते हैं उन-उन व्रतरूपी अत्रोंके द्वारा पूरी तरहसे छिन्न-भिन्न किये जानेपर भी जिसका मोहरूपी महान् वीर किंचित् जीवित है, वह उत्कृष्ट अन्तिम श्रावक अपने उद्देशसे बने भोजनको भी छोड़ दे ॥३७॥ विशेषार्थ-ग्यारहवीं प्रतिमाधारीका मोह अभी किंचित् जीवित है उसीका यह फल है कि वह पूर्ण जिनरूप मुनिमुद्रा धारण करने में असमर्थ है। पहले कहा था दशम और ग्यारहवीं प्रतिमाधारी श्रावक उत्कृष्ट हैं। फिर भी यहाँ ग्यारहवीं प्रतिमाधारीको बतलानेके लिए कहा है कि ग्यारहवीं प्रतिमाधारी एवंभतनयसे उत्कृष्ट है और अनुमतिविरत नैगमनयसे उत्कृष्ट है। अर्थात् ग्यारहवीं प्रतिमावाला तो वर्तमानमें उत्कृष्ट है किन्तु अनुमतिविरत आगे उत्कृष्ट होनेवाला है इस दृष्टिसे उत्कृष्ट है। यह अपने उद्देशसे बनाये गये भोजनको भी स्वीकार नहीं करता। भोजनको भी स्वीकार न करनेसे यह अभिप्राय है कि नवकोटिसे विशुद्ध भोजनको ही स्वीकार करता है। तथा भोजनकी तरह ही अपने उद्देशसे निर्मित उपधि, शय्या, आसन आदिको भी स्वीकार नहीं करता । आचार्य समन्तभद्रने प्रत्येक प्रतिमाका स्वरूप केवल एक इलोकमें ही कहा है। उन्होंने इस उत्कृष्ट श्रावकका भी स्वरूप एक इलोकसे कहा है कि घरसे मुनिवन में जाकर गुरुके पासमें व्रत ग्रहण करके जो भिक्षा भोजन करता है, तपस्या करता है और वस्त्रखण्ड धारण करता है वह उत्कृष्ट श्रावक है । चारित्रसार (पृ. १९) में कहा है-'उद्दिष्ट विरत श्रावक अपने उद्देशसे बनाये गये भोजन, उपधि, शयन, वस्त्र आदि ग्रहण नहीं करता। एक शाटक धारण करता है, भिक्षाभोजी है, बैठकर हस्तपुट में भोजन करता है, रात्रिप्रतिमा आदि तप करता है, आतापन आदि योग नहीं करता। समन्तभद्र स्वामाने 'उद्दिष्ट की कोई चचो नही की, न उद्दिष्ट विरत नाम ही दिया। हाँ, भिक्षाभोजनसे उद्दिष्टविरतकी बात आ जाती है। उन्होंने केवल एक वस्त्रका टुकड़ा रखनेकी बात कही है। उत्तर कालमें उसका स्थान एक शाटकने ले लिया । आचार्य अमितगतिने अपने श्रावकाचारके सातवें परिच्छेदमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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