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सप्तदश अध्याय ( अष्टम अध्याय) अथ स्थायिनः पातोन्मुखस्य च शरीरस्य नाशने शोचने च निषेधमुपपादयति
न धर्मसाधनमिति स्थास्नु नाश्यं वपुर्बुधैः ।
न च केनापि नो रक्ष्यमिति शोच्यं विनश्वरम् ॥५॥ स्थास्नु-साधुत्वेन रत्नत्रयानुष्ठानसाधकत्वलक्षणेन तिष्ठत् । नो रक्ष्य-रक्षयितुमशक्यम् । विनश्वरं-विशेषेण नश्यत् तद्भवमरणं प्राप्नुवदित्यर्थः । उक्तं च
'गहनं न शरीरस्य हि विसर्जनं किन्तु गहनमिह वृत्तम् ।
तन्न स्थास्नु विनाश्यं न नश्वरं शोच्यमिदमाहुः ॥' [ सो. उपा. ८९२ श्लो. ] ॥५॥ अथ कायस्यानुवर्तनोपचरणपरिहरणयोग्यतोपदेशार्थमाह
कायः स्वस्थोऽनुवर्त्यः स्यात् प्रतीकार्यश्च रोगितः।
उपकारं विपर्यस्यंस्त्याज्यः सद्भिः खलो यथा ॥६॥ अनुवर्त्यः-स्वास्थ्य एव स्थाप्यः । विपर्यस्यन्–अधर्मसाधनत्वं गच्छन्नित्यर्थः । त्याज्य:स्वस्थातुरोपचारपरिहारेणोपेक्षणीय इत्यर्थः । खल:-दुर्जनः पिण्याको वा ॥६॥ अथ शरीरार्थं धर्मोपघातस्यात्यन्तनिषेधमाह--
नावश्यं नाशिने हिस्यो धर्मो देहाय कामदः ।
देहो नष्टो पुनलंभ्यो धर्मस्त्वत्यन्तदुर्लभः ॥७॥ देह इत्यादि । देहमात्रापेक्षयेदमुच्यते । धर्मः-प्रक्रमात् समाधिमरणलक्षणः ॥७॥
स्थायी शरीरको नष्ट करनेका और नाशोन्मुख शरीरके लिए शोक करनेका निषेध करते हैं
यतः धर्मका साधन है इसलिए साधुरूपसे ठहरते हुए शरीरको तत्त्वज्ञानी पुरुषोंको नष्ट नहीं करना चाहिए । कोई योगी या देव या दानवोंका स्वामी भी उसकी रक्षा नहीं कर सकता इसलिए यदि वह नष्ट होता हो तो उसका शोक नहीं करना चाहिए ॥५॥
विशेषार्थ-यह प्रसिद्ध उक्ति है कि शरीर ही धर्मका मुख्य साधन है। इसलिए यदि शरीर रत्नत्रयकी साधनामें सहयोग देता हो तो उसे जबरदस्ती नष्ट नहीं करना चाहिए
और यदि वह छूटता हो तो उसका शोक नहीं करना चाहिए क्योंकि मृत्यु तो अवश्यंभावी है । उससे बचा सकना किसीके लिए भी सम्भव नहीं है। कहा भी है-'शरीरको समाप्त करना कठिन नहीं है। कठिन है उसको चारित्रका साधन बनाना, उसके द्वारा धर्मसाधन करना। इसलिए यदि शरीर ठहरनेवाला हो तो उसे नष्ट नहीं करना चाहिए। और नष्ट होता हो तो उसका शोक नहीं करना चाहिए ।' ||५||
कब शरीरका पोषण करना चाहिए ? कब उपचार करना चाहिए ? और कब उसकी उपेक्षा करनी चाहिए, यह बतलाते हैं
साधु पुरुषोंको यदि शरीर स्वस्थ हो तो अनुकूल आहार-विहारसे उसे स्वस्थ रखनेका प्रयत्न करना चाहिए। यदि रोग हो जाये तो योग्य औषधि आदिसे उसका उपचार करना चाहिए। यदि शरीर स्वास्थ्य और आरोग्यके लिए किये गये उपकारको भूलकर विपरीत प्रवृत्ति करे अर्थात् स्वस्थ होकर अधर्मका साधन बने या चिकित्सा करनेपर भी रोग बढ़ता जाये तो दुजेनकी तरह उसे त्याग देना चाहिए ॥६॥
आगे शरीरके लिए धर्मका उपघात करनेका अत्यन्त निषेध करते हैंजिसका विनाश निश्चित है उस शरीरके लिए इच्छित वस्तुको देनेवाले धर्मका घात
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