Book Title: Dharmamrut Sagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 379
________________ ३४४ धर्मामृत ( सागार ) अथ ब्रह्मचर्यदाढार्थमाह पूर्वेऽपि बहवो यत्र स्खलित्वा नोद्गताः पुनः । तत्परं ब्रह्म चरितुं ब्रह्मचर्य परं चरेत् ॥८॥ पूर्वे-रुद्रादयः ॥८॥ अथ नैर्ग्रन्थ्यव्रतं दृढयितुमाह मिथ्येष्टस्य स्मरन् श्मश्रुनवनीतस्य दुर्मृतेः । मोपेक्षिष्ठाः क्वचिद् ग्रन्थे मनोमूर्छन्मनागपि ॥८॥ [ श्मश्रुनव-] नीतस्य-लुब्धदत्तास्यस्य श्रेष्ठिपुत्रस्य ॥८९॥ अथ निश्चयेन नैर्ग्रन्थ्यप्रतिपत्त्यर्थमाह बायो ग्रन्थोऽङ्गमक्षाणामान्तरो विषयैषिता। निर्मोहस्तत्र निर्ग्रन्थः पान्थः शिवपुरेऽर्थतः ॥१०॥ बाह्य इत्यादि । उक्तं च जिस ब्रह्मचर्य व्रतमें आजकलके मुनियोंकी तो बात ही क्या, पूर्वकालीन रुद्र आदि बहुतसे महान् पुरुष स्खलित होकर पुनः नहीं उठ सके. गिरते ही चले गये, उस उत्कृष्ट निर्विकल्प आत्मज्ञानका अनुभव करने के लिए अर्थात् शुद्ध स्वात्माका स्वात्माके द्वारा संवेदन करने के लिए निरतिचार ब्रह्मचर्यव्रतको धारण करो ।।८८।। परिग्रह त्यागव्रतको दृढ़ करनेके लिए कहते हैं मिथ्या मनोरथ करनेवाले श्मश्रुनवनीत नामक एक श्रेष्ठिपुत्रके रौद्रध्यान पूर्वक मरणका स्मरण करके हे क्षपक ! किसी परिग्रहमें किंचित् भी ममत्वभाव करनेवाले मनकी उपेक्षा मत करो । अर्थात् समस्त परिग्रह में अपने मनको निरासक्त रखो ॥८९॥ विशेषार्थ-एक श्रेष्ठिपुत्र व्यापारके लिए समुद्र यात्रा पर गया। लौटते समय उसका जहाज डूब गया। जिस किसी तरह एक तख्तेके सहारे वह किनारे लगा और पास के गाँव में फंसकी झोपड़ी डालकर रहने लगा। गाँवके लोग उसे पीने के लिए छाछ देते थे। छाछ पीते समय कुछ घी उसकी मूंछोंमें लग जाता था। उसे वह एक हाँडीमें एकत्र करता जाता था। इसीसे उसका नाम श्मश्रु नवनीत अर्थात् मूछोंके मक्खन वाला पड़ गया था। धीरे-धीरे ज्यों-ज्यों हाँडीमें घी एकत्र होता गया उसके मिथ्या मनोरथ बढ़ते गये। एक दिन शीत ऋतु में नीचे आग जलती थी। उसीके ऊपर हाँडी टॅगी थी और पैर फैलाये श्मश्रनवनीत अपने मिथ्या विकल्पोंमें उलझा था कि घी बेचकर गाय लूंगा, फिर विवाह करूँगा, बच्चे पैदा होंगे, वे मुझे भोजनको बुलाने आयेंगे तो उन्हें लात मारकर भगा दूँगा। इस कल्पनामें सचमुच ही वह लात चला बैठा। उसका पैर ऊपर टँगी हाँडीमें लगा। घी की हाँड़ी आगमें गिरी और आग भड़क उठी। उसीमें जलकर वह मर गया। उसकी घटनाको स्मरण कर किसी भी परिग्रहमें मन किंचित् भी उलझता हो तो सावधान हो जाओ। उसकी उपेक्षा मत करो ।।८९॥ शरीर बाह्य परिग्रह है। स्पर्शन आदि इन्द्रियोंकी स्पर्श आदि विषयों में अभिलाषा अन्तरंग परिग्रह है। जो इन दोनों ही प्रकारके ग्रन्थों में निर्मोह है वही साधु परमार्थसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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