Book Title: Dharmamrut Sagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 380
________________ सप्तदश अध्याय (अष्टम अध्याय) 'देहो बाहिरगंथो अण्णो अक्खाण विसय अहिलासो। ताणुवरि हयमोहो परमत्थे हवइ निग्गंथो॥' [ आरा. सार. ३३ ] ॥१०॥ अथ कषायेन्द्रियकृतापायाननुस्मारयन्नाह कषायेन्द्रियतन्त्राणां तत्तादृग्दुःखभागिताम् । परामृशन्मा स्म भवः शंसितव्रत तद्वशः॥११॥ स्पष्टम् ॥९१॥ अथैवं व्यवहाराराधनानिष्ठतां विधाप्येदानी निश्चयाराधनापरत्वविधानार्थं श्लोकद्वयमाह श्रतस्कन्धस्य वाक्यं वा पदं वाक्षरमेव वा। यत्किचिद्रोचते तत्रालम्ब्य चित्तलयं नय ॥१२॥ वाक्यं--णमो अरहंताणमित्यादि । पदं-अहमित्यादि । अक्षरं-असि. आ उ सा इत्यादीनामेकतमम् । तत्र इष्टे वाक्यादीनामन्यतमे। उक्तं च 'मृतिकाले श्रुतस्कन्धः सर्वो द्वादशभेदकः । न जातु शक्यते स्मर्तुं चलिताशक्तचेतसा ।। एकत्रापि पदे यत्रानुरागं भजते नरः। जिनमार्गे न तत्त्याज्यमायुरन्त उपस्थिते ।। इत एकमपि श्लोकं मृतिकाले विचिन्तयन् । रत्नत्रयसमाधानो भवत्याराधको यतिः ॥' [ ॥९२॥ निर्ग्रन्थ अर्थात् अपरिग्रही है और निर्वाणनगरका स्थायी पथिक है। क्योंकि निर्ग्रन्थ ही मोक्षमार्गमें सतत गमन करने में समर्थ होता है ॥२०॥ आगे कषाय और इन्द्रियोंके द्वारा होनेवाले अपायोंका स्मरण कराते हैं हे प्रशस्त रीतिसे व्रतोंको धारण करनेवाले! कषाय और इन्द्रियोंके अधीन हुए प्राणियोंके पीछे कहे हुए असाधारण कष्ट भोगनेका विचार करके उनके वशमें मत होओ ॥२१॥ इस प्रकार व्यवहार आराधनाको कहकर निश्चय आराधनाका उपदेश देते हैं हे व्यवहार आराधना करनेवाले आराधक श्रेष्ठ ! श्रुतस्कन्धका कोई वाक्य अथवा कोई पद अथवा अक्षर, जो कोई भी तुम्हें रुचे, उसीका आलम्बन लेकर उसमें मनको लीन करो ॥९॥ विशेषार्थ-आचारांग आदि बारह अंगोंको अंगप्रविष्ट कहते हैं। सामायिक आदि प्रकीर्णकोंको अंगबाह्य कहते हैं। तथा इन सबके समूहको श्रुतस्कन्ध कहते हैं। उनके वाक्य बाह्य शब्दरूप भी हो सकते हैं और विचाररूप आभ्यन्तर भी हो सकते हैं। जैसे पंचनमस्कार मन्त्र उसीका वाक्य है। 'णमो अरहताणं' यह पद है। अहं या अ सि आ उ सा ये अक्षर हैं। इनमें से जो रुचता हो उसका आलम्बन लेकर मनको उसमें लय करना निश्चय आराधना है। यह पदस्थध्यान है जो धर्मध्यानका ही भेद है। पदादिक मनको एकाग्र करनेके आलम्बन हो सकते हैं। ध्यानका मुख्य केन्द्र तो आत्मा होता है । कहा है-'मरते १. 'तेसि' चारा खवओ पर-आ. सा. । सा.-४४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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