Book Title: Dharmamrut Sagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 370
________________ सप्तदश अध्याय ( अष्टम अध्याय) मा समन्वाहर-मानुबन्धिनी कुरु उत्पद्यमानामेव निवारय [इत्यर्थः । ... ... ... ... ...॥६२॥ मा कांक्षी विभोगादीन रोगादीनिव दःखदान । वृणीते कालकूट हि कः प्रसाद्येष्टदेवताम् ॥६३॥ [क्षपकस्य चतु-] विधाहारसंन्यासविधि द्वाभ्यामाह इति व्रतशिरोरत्नं कृतसंस्कारमुद्वहन् । खरपानक्रमत्यागात् प्रायेऽयमुपवेक्ष्यति ॥६४॥ एवं निवेद्य संघाय सूरिणा निपुणेक्षिणा। सोऽनज्ञातोऽखिलाहारं यावज्जीवं त्यजेत त्रिधा ॥६५॥ व्रतशिरोरत्नं....-सल्लेखनां, तस्या एव सर्वव्रतानां साफल्यसम्पादकत्वेनोपरि भ्राजमानत्वात् । ९ [चुडामणिरिवाभरणानाम् । प्राये चतुर्विधाहारसंन्यासे उपवेक्ष्य-] ति-निश्चलं स्थास्यति, दृढप्रतिज्ञो भविष्यतीत्यर्थः ॥६४॥ एवं-अत्रायं विधिः 'त्यक्ष्यति सर्वाहारं यावज्जीवं निरन्तरत्रिविधम् । निर्यापकसूरिवरः सङ्घाय निवेदयेदेवम् ।। क्षपयति यः क्षपकोऽसौ पिच्छं तस्येति संयमधनस्य। दर्शयितव्यं नीत्वा सङ्घातितेषु सर्वेषु ॥ [ ] निपुणेक्षिणा-व्याधि-देश-काल-सत्त्व-सात्म्य-बल-परीषहक्षमत्व-[ संवेग - वैराग्यादीनां सूक्ष्मेक्षिकया विचारकेणेत्यर्थः। त्रिधा-मनो-1 वाक्कायः ॥६५।। कि मैंने इस प्रकार सुन्दर कामिनी आदिको देखा था और इस प्रकार आलिंगन किया था। क्योंकि इन्द्रिय सुखोंके दृढ़ संस्कारोंकी वासनाके कारण ही यह जीव संसारमें भ्रमण करता है। अर्थात् इसके भ्रमणका कारण आत्मज्ञानके संस्कार नहीं हैं किन्तु विषयवासनाके संस्कार हैं ॥६॥ रोगोंकी तरह दुःख देनेवाले भावि भोगोंकी आकांक्षा कि तपके माहात्म्य आदिसे अमुक इष्ट विषय मुझे प्राप्त हो, मत करो। क्योंकि इष्ट वस्तुको देने में समर्थ देवी या देवको प्रसन्न करके उससे तत्काल प्राणहारी विष कौन माँगता है। अर्थात् समाधि पूर्वक मरण करके स्वर्ग आदिके भोगों की कामना वैसी ही है जैसे कोई वरदान देने वाले देवताको प्रसन्न करे और उससे प्रार्थना करे कि हमें ऐसा विष दो जिसके खाते ही प्राण चले जाये । भोग विषसे कम भयानक नहीं होते ॥६३॥ अब दो श्लोकोंसे क्षपकके चारों प्रकारके आहारके त्यागकी विधि कहते हैं पूर्वोक्त प्रकारसे अतिशयको प्राप्त तथा सब व्रतोंके चूड़ामणि सल्लेखनाको उत्तम रीति से धारण करनेवाला यह क्षपक शुद्ध जल मात्रके उपयोगका क्रमसे त्याग करके चारों प्रकारके आहारके त्यागमें दृढ़ प्रतिज्ञ होगा।' इस प्रकार चतुर्विध श्रमण संघको सूचित करके सूक्ष्मदृष्टिसे सम्पन्न निर्यापकाचार्यके द्वारा अनुमति मिलने पर वह क्षपक जीवन पर्यन्तके लिए मन वचन कायसे चारों प्रकारके भोजनका त्याग करे ॥६४-६५॥ विशेषार्थ-पहले जो क्रमसे पाँच अतिचारोंको उपपत्ति पूर्वक त्यागनेकी प्रेरणा की है वही इस सल्लेखनाव्रतका संस्कार है। अतिचारोंके त्यागसे उसमें विशेषता आ जाती है। तथा जैसे सब आभूषणोंमें चूड़ामणि मस्तक पर धारण किया जाता है उसी तरह यह १. पिण्डं । २. संधावसथेषु-भ. कु. च. । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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