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सप्तदश अध्याय ( अष्टम अध्याय)
३३७ अर्थवमाराधनापताकाग्रहणोद्यतस्य क्षपकस्य निर्या[पकाः किं कुर्युरित्याह-]... ... ... ...
ततो निर्यापकाः कर्णे जपं प्रायोपवेशिनः ।
दधुः संसारभयदं प्रीणयन्तो वचोऽमृतः ॥६॥ [ अथातो निर्यापकाचार्यका-] यां क्षपकस्य महतीमनुशिष्टिमुत्तरप्रबन्धेनोपदिशति
मिथ्यात्वं वम सम्यक्त्वं भजोर्जय जिनादिषु ।
भक्ति भावनमस्कारे रमस्व ज्ञानमाविश ॥६९॥ भज-भावय । ऊर्जय-बलवती जीवन्तीं वा कुरु । आविश-उपयुंक्ष्व ।...
महाव्रतानि रक्षोच्चैः कषायान जय यन्त्रय।
अक्षाणि पश्य चात्मानमात्मनात्मनि मुक्तये ॥७॥ [मिथ्यात्वस्यापायहेतुत्वं श्लोकद्वयन स्प-] ष्टयति
अधोमध्योध्वंलोकेषु नाभून्नास्ति न भावि वा।
तदुःखं यन्न दीयेत मिथ्यात्वेन महारिणा ॥७१॥ स्पष्टम् ॥७॥
सङ्घश्रीर्भावयन्भूयो मिथ्यात्वं वन्दकाहितम् ।
धनदत्तसभायां द्राक् स्फुटिताक्षोऽभ्रमद् भवम् ॥७२॥ इस प्रकार आराधनाका झण्डा ग्रहण करनेके लिए तत्पर क्षपकके प्रति निर्यापक क्या करें, यह बताते हैं
- उसके पश्चात् अमृतके समान वचनोंसे क्षपकको सम्पोषित करते हुए निर्यापकगण समाधिमरण करनेवाले संन्यासीके कानमें संसारसे संवेग और निर्वेद देनेवाला जप देवें ॥६८।।
अब यहाँसे निर्यापकाचार्य क्षपकको जो महान् उपदेश देते हैं उसका वर्णन करते हैं
हे आराधकराज! विपरीत अभिनिवेशरूप मिथ्यात्वको वमन करो। अर्थात् जैसे वमनके द्वारा अन्दरका सब विकार बाहर कर दिया जाता है वैसे ही मिथ्यात्वको निःशेष कर दो। तत्त्वार्थश्रद्धानरूप सम्यक्त्वकी भावना करो। अर्हन्त आदि परमेष्ठियोंमें उनके प्रतिबिम्बोंमें और व्यवहारनिश्चयरूप रत्नत्रयमें भक्तिको बढ़ाओ। भावनमस्कार अर्थात् अर्हन्त आदिके गुणोंके अनुरागपूर्ण ध्यानमें रमण करो। तथा बाह्य और आध्यात्मिक तत्त्वबोधमें उपयोगको लगाओ ॥६॥
____महाव्रतोंका पालन करो। क्रोधादि कषायोंका अत्यन्त निग्रह करो। स्पर्शन आदि इन्द्रियोंको अपने-अपने विषयों में प्रवृत्ति करनेसे रोको। तथा मुक्तिके लिए आत्मामें आत्मासे आत्माको देखो ॥७॥
मिथ्यात्व अपायका कारण है, यह दो इलोकोंसे कहते हैं
परम शत्रु मिथ्यात्वके द्वारा जो दुःख दिया जाता है वह दुःख अधोलोक अर्थात् सुमेरुसे नीचे सात नरकोंमें, मध्यलोक अर्थात् जम्बूद्वीपसे लेकर स्वयम्भूरमण समुद्र पर्यन्त तिर्यग्लोकमें
और ऊर्ध्वलोक अर्थात् मेरुकी चूलिकाके अन्तसे लेकर तनुवातवलय पर्यन्त न हुआ, न है और न भविष्यमें होगा ।।७१।।
वन्दकके द्वारा पुनः आरोपित मिथ्यात्वको अन्तरंगमें भाता हुआ धनदत्त राजाका मन्त्री संघश्री अपने स्वामी धनदत्तकी सभामें तत्काल अन्धा होकर संसारमें भ्रमण करता रहा ॥७२॥
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