Book Title: Dharmamrut Sagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 373
________________ ३३८ धर्मामृत ( सागार ) सङ्घश्रीः-मन्त्री । वन्दकाहितं-भूयः स्वगुरुणा बन्दकेन पुनरारोपितम् ॥७२॥ अधोमध्योर्ध्वलोकेषु नाभूनास्ति न भावि वा। तत्सुखं यन्न दोयेत सम्यक्त्वेन सुबन्धुना ॥७३॥ अथ सम्यक्त्वस्योपकारकत्वं द्वाभ्यां... ... ... ... ... प्रह्लासितकुदृग्बद्धश्वभ्रायुःस्थितिरेकया। दग्विशुद्धयापि भविता श्रेणिकः किल तीर्थकृत् ॥७॥ [प्रहसिता-त्रयस्त्रिशत्सागरोपम ] परिमाणादपकृष्य चतुरशीतिवर्षशतप्रमाणा कृता ॥७४॥ विशेषार्थ-आन्ध्रदेशमें वेण्यातटपुर नगरके राजाका मन्त्री संघश्री बौद्धधर्मका पक्षपाती था। एक दिन राजा मन्त्रीके साथ अपने महलके ऊपर बैठा था। उधरसे दो चारण ऋद्धिधारी मुनि आकाशमार्गसे जाते थे। राजाकी प्रार्थनापर मुनिराज महलके ऊपर उतरे और उन्होंने धर्मोपदेश दिया। मुनिवरके उपदेशसे प्रभावित होकर मन्त्रीने भी जैनधर्म स्वीकार किया। किन्तु बौद्धगुरुके प्रभाववश पुनः बौद्धधर्म स्वीकार कर लिया। एक दिन राजाने सभामें आकाशमार्गसे गमन करनेवाले मुनियोंकी चर्चा की और साक्षीके रूपमें मन्त्रीका नाम लिया। किन्तु मन्त्रीने राजाके कथनको असत्य बतलाया। तत्काल उसकी दोनों आँखें फूट गयीं। यह कथा हरिषेण कथाकोशमें असत्य भाषणके फलके रूपमें आयी है। अतः मिथ्यात्वके समान कोई अन्य शत्रु नहीं है। इसलिए सबसे प्रथम मिथ्यात्वका त्याग आवश्यक है ।।७२।। दो इलोकोंसे सम्यक्त्वका उपकारकपना बतलाते हैं सच्चे बन्धु सम्यक्त्वके द्वारा जो सुख दिया जाता है वह सुख अधोलोक, मध्य लोक और ऊर्ध्वलोकमें न भूतकालमें हुआ, न वर्तमानमें है और न भविष्यमें होगा ।७३॥ विशेषार्थ-मिथ्यात्वको जीवका परम शत्रु कहा है, क्योंकि उसके होते हुए ही बाह्य और अभ्यन्तर शत्रु अपकार करनेमें समर्थ होते हैं। और सम्यक्त्वको सुबन्धु कहा है क्योंकि वह सर्वत्र सर्वदा सबका उपकारक है और समस्त प्रकारके अनिष्टोंको रोकता है। आचार्य समन्तभद्रने भी कहा है कि तीनों कालों और तीनों लोकोंमें सम्यक्त्वके समान कोई कल्याणकारी नहीं है और मिथ्यात्वके समान कोई अकल्याणकारी नहीं है ॥७३॥ आगममें ऐसा सुना जाता है कि मगधका सम्राट राजा श्रेणिक, जिन्होंने तीन मिथ्यात्व परिणामसे सातवें नरककी आयुका बन्ध किया था, और सम्यक्त्वके माहात्म्यसे सप्तम नरककी तैंतीस सागर प्रमाण आयु घटकर रत्नप्रभा नामक प्रथम पृथ्वीमें चौरासी हजार वर्ष परिमाण शेष रही थी, तीर्थकर प्रकृतिके बन्धके सोलह कारणोंमें से मात्र एक दर्शन-विशुद्धिसे आगामी उत्सर्पिणीकालमें प्रथम तीर्थकर होगा ।।७४॥ विशेषार्थ-राजा श्रेणिकने एक मुनिके गले में मरा सर्प डाला था। तभी उसने तीव्र मिथ्यात्व परिणामसे सातवें नरककी आयुका बन्ध किया था। पीछे अपनी रानी धर्मशीला चेलनाके समझानेसे उसे पश्चात्ताप हुआ और वह भगवान महावीरकी समवशरण सभामें प्रधान श्रोता हुआ। तभी उसने तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया ॥७४॥ १. 'न सम्यक्त्वसमं किंचित्रकाल्ये त्रिजगत्यपि । श्रेयोऽश्रेयश्च मिथ्यात्वसमं नान्यत्तनूभृताम् ॥' -र. श्रा., ३४ श्लो.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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