Book Title: Dharmamrut Sagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 376
________________ सप्तदश अध्याय ( अष्टम अध्याय) ३४१ यदाह 'स्वाध्यायः परमस्तावज्जपः पञ्चनमस्कृतेः।' इति । अभ्येत्य सौधर्मात्-सौधर्मे महद्धिकदेवत्वं प्राप्त इत्यदिापन्नमत्र बोध्यम् ।।८।। खण्डश्लोकैस्त्रिभिः कुर्वन् स्वाध्यायादि स्वयं कृतः। मनिनिन्दाप्तमौग्ध्योऽपि यमः सप्तद्धिभरभत ॥८॥ त्रिभिः-'कट्टसि पुण णिक्खेवसि रे गदहा ज़वं पत्थेसि खादितुं ।' __ 'अण्णत्थ किं फलो वहतु मे इत्थं णिद्दिया छिड्डे ।' अच्छईणिया 'अम्हादो णत्थि भयं दिहादो दीसए भयं तुम्ह ।' ॥८१।। अहिसाहिंसयोर्माहात्म्यं द्वाभ्यामाह अहिंसाप्रत्यपि दृढं भजनोजायते रुजि । यस्त्वयहिंसासर्वस्वे स सर्वाः क्षिपते रुजः ॥८२॥ अहिंसा प्रत्यपि-स्तोकामप्यहिंसाम् । 'स्तोके प्रतिना' इत्यव्ययीभावः । ओजायते-ओजस्वीवाचरति । दुःखेन नाभिभूयत इत्यर्थः । रुजि-उपसर्गादिपीडायामुपस्थितायाम् । अध्यहिंसासर्वस्वे-सकलाहिंसाया ईश्वर इत्यर्थः । 'ईश्वरेऽधि' इत्यनेन सप्तमी ॥८२॥ विशेषार्थ-जब दृढ़सूपे चोरको सूली दी गयी तो धनदत्त सेठ उधरसे निकले। चोरने उनसे पीने के लिए पानी मांगा। दयालु धर्मात्मा सेठको उसपर दया आयी। सेठने कहामुझे गुरुने एक मन्त्र दिया है और कहा है कि भूलना नहीं। मैं पानी लेने गया तो मन्त्र भूल जाऊँगा तुम मेरा मन्त्र स्मरण रखो तो मैं तुम्हारे लिये पानी लाऊँ। इस बहानेसे सेठने चोरको नमस्कार मन्त्र दिया और वह उसी का स्मरण करते हुए मर गया । इधर राजाको सूचना मिली कि धनदत्त सेठने चोरसे वार्तालाप किया है तो चोरका साथी जानकर राजसेवकोंने सेठका घर घेर लिया। उधर चोर मरकर नमस्कार मन्त्रके प्रभावसे सौधर्म स्वर्गमें देव हुआ । प्रबुद्ध होते ही वह यह जानने के लिए उत्सुक हुआ कि यह सब क्या है और मैं कहाँ हूँ। तत्काल अवधिज्ञानसे उसे अपने पूर्वजन्मका वृत्त ज्ञात हुआ तो वह कृतज्ञतावश सेठके पास आया तो उसने देखा कि सेठका घर घिरा है और सेठको पकड़नेकी तैयारी है तब उसने संठका उपसगे दूर किया और उसका बहत आदर-सत्कार किया। यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि स्वाध्यायके प्रभावके प्रकरणमें पंचनमस्कार मन्त्रका प्रभाव दिखलानेसे क्या प्रयोजन है। इसका उत्तर यह है कि पंचनमस्कारका चिन्तन उत्कृष्ट स्वाध्याय है ॥८॥ __ अपने द्वारा रचे गये तीन श्लोक खण्डोंसे स्वाध्याय आदि करनेवाले यम नामके मुनि, जिन्हें मुनिनिन्दाके कारण मूढ़ता प्राप्त हुई थी, सातऋद्धियोंके स्वामी हुए ॥८१॥ विशेषार्थ-राजा यम मुनिनिन्दाके पापसे बुद्धिहीन हो गये तो उन्होंने जिनदीक्षा धारण कर ली। किन्तु बहुत प्रयत्न करनेपर भी उन्हें ज्ञानकी प्राप्ति नहीं हुई । तब खेदखिन्न होकर वे अकेले विहार करने लगे। उन्होंने मार्गकी तीन घटनाओंको लक्ष्य करके तीन खण्ड श्लोक रच लिये और उन्हींका स्वाध्याय करते-करते वे ऋद्धिधारी मुनि हो गये । इनकी रोचक कथा भी हरिषेणके कथाकोशमें पढ़ने योग्य है। अतः स्वाध्यायका बड़ा महत्त्व है ।।८।। दो श्लोकोंसे अहिंसा और हिंसाका महत्त्व बतलाते हैंथोड़ी-सी भी अहिंसाको दृढ़तापूर्वक पालन करनेवाला उपसर्ग आदिकी पीड़ा उपस्थित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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