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सप्तदश अध्याय (अष्टम अध्याय)
अथ सल्लेखनाविधिमभिधातुकामस्तत्प्रयोक्तारं साधकं लक्षयन्नाह
देहाहारेहितत्यागात् ध्यानशुद्धयाऽऽत्मशोधनम् ।
यो जीवितान्ते संप्रीतः साधयत्येष साधकः ।।१॥ देहत्यागः-शरीरममत्ववर्जनम् । ईहितं-मनोवाक्कायकर्म। संप्रीतः-सर्वाङ्गीणध्यानसमुत्थानन्दयुक्तः ।।१॥ अथ कस्य श्रावकत्वेन कस्य च यतित्वेन मोक्षमार्गप्रवृत्तिः कर्तव्येति पृच्छन्तं प्रत्याह
सामग्रीविधुरस्यैव श्रावकस्यामिष्यते । विधिः सत्यां तु सामरयां श्रेयसी जिनरूपता ॥२॥
विधुरस्य-जिनलिनग्रहणयोग्यत्रिस्थानकदोषादियुक्तस्य । अयं-उक्तो वक्ष्यमाणश्च। २ श्रेयसी-प्रशस्यतरा ॥२॥
सामग्रोविध
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अब ग्रन्थकार सल्लेखनाकी विधि कहना चाहते हैं। पहले सल्लेखना करनेवालेका अर्थात् साधकका लक्षण कहते हैं
जो जीवनका अन्त आनेपर शरीर, आहार और मन-वचन-कायके व्यापारको त्यागकर ध्यानशुद्धिके द्वारा आनन्दपूर्वक आत्माकी शुद्धिकी साधना करता है वह साधक है ॥१॥
विशेषार्थ-प्रारम्भमें श्रावकके तीन भेद कहे थे--पाक्षिक, नैष्ठिक और साधक । पाक्षिक और नैष्ठिकके कथनके बाद अन्तमें साधकका वर्णन करते हैं। जो साधना करता है उसे साधक कहते हैं। जब जीवनका अन्त उपस्थित हो तब शरीरसे ममत्वको त्यागकर, चारों प्रकारके आहारको त्यागकर और मन-वचन-कायके व्यापारको रोककर ध्यानशुद्धिके
आत्मशोधन करनेवालेको साधक कहते हैं। अन्य सब ओरसे चिन्ताओंको हटाकर एक ही ओर चिन्ताके लगानेको ध्यान कहते हैं। आर्तध्यान, रौद्रध्यानको छोड़कर स्वात्मामें ही लीन होना ध्यानशुद्धि है अर्थात् ध्यानशुद्धिका अर्थ होता है निर्विकल्प समाधि । और आत्मशोधनसे मतलब है आत्मासे मोह, राग, द्वेषका दूर होना अर्थात् आत्माकी रत्नत्रयरूप परिणति । जो मरते समय इसकी साधना करता है, अपने उपयोगको सब ओरसे हटाकर अपनी आत्मामें लगाता है वह साधक कहलाता है। आगे इसीका वर्णन है ॥१॥
किसको श्रावकके रूपमें और किसको मुनिके रूपमें मोक्षमार्गमें लगना चाहिए ? इस प्रश्नका उत्तर देते हैं
जो श्रावक जिनलिंग धारण करनेके अयोग्य होता है उसीके लिए आगेकी विधि पूर्वाचार्योंने मान्य की है। जिनलिंग धारणके योग्य सामग्री होनेपर तो जिनलिंग धारण करना ही अति उत्तम है ॥२॥
विशेषार्थ-जब मरणकाल उपस्थित हो और श्रावकमें मुनिपद धारणकी पात्रता हो
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