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धर्मामृत ( सागार) विशुद्धिः मानसी शारीरी च । यथोक्तं तथाहि
'फलकशिलातृणमृद्भिः प्रकल्पितसंस्तरो भवति भद्रः । सम्यक् समाधिहेतुः पूर्वशिरा वोत्तरशिरा वा ।। सुषिरबिलजन्तुविकले समेऽविघर्षे च युक्तमाने च ।
अस्निग्धे धनकुड्ये सालोके भूमिसंस्तरकः ॥ [ अविघX-अमृदो । मृदुहि भूभागो गात्रकरचरणप्रमर्दनेन बाध्यते । अस्निग्धे-अनार्दै ।
'विध्वस्तश्चास्फुटितो निःकम्पः सर्वतोऽप्यसंसक्तः ।
समपृष्ठः सालोकः शिलामयः संस्तरो भवति ।।' [ विध्वस्तः–दाहात्कुट्टनाद् घर्षणाद्वा प्रासुकीकृतः ।
'भूमिसमबहललघुको निःकम्पो निर्धनीः पुरुषमानः।
निश्छिद्रश्चास्फुटिता मसृणोऽपि च फलकसंस्तारः ॥' [ ] बहल:-रुन्द्रः।
'निःसन्धिनिर्विवरो निरुपहतः समधिवास्य निर्जन्तुः ।
सुखसंशोध्यो मृदुकस्तृणास्तरो भवति तुरीयः ॥' [ निःसन्धिः-निर्ग्रन्थिः । निरुपहतः-अचूर्णितः । समधिवास्यः-सुखस्पर्शः ।
'युक्तप्रमाणचरितः सन्ध्याध्यासे विशोधनोपेतः।
विधिविहितः संस्तरकः स्वारोढव्यस्त्रिगुप्तेन ॥ [ सन्ध्याध्यासे-सूर्योदयास्तमनकालद्वये ॥३५॥ अथ संस्तरारोहणकाले महाव्रतमर्थयमानस्यार्यस्याचेलक्यलिङ्गविधानार्थमाह
त्रिस्थानदोषयुक्तायाप्यापवाविकलिङ्गिने।। महाव्रताथिने दद्याल्लिङ्गमौगिकं तदा ॥२६॥
विशेषार्थ-सम्यकसमाधिके लिए लकड़ीके पटिये, शिला और तृण और मिट्टीसे बना संस्तर उत्तम होता है । उसका सिर पूरब या उत्तरकी ओर होना चाहिए। मिट्टी या भूमिपर संस्तर बनाया जाये तो वह भूमि छिद्र, बिल और जन्तुसे रहित, सम, कड़ी, उचित प्रमाणवाली, सूखी और प्रकाशयुक्त होनी चाहिए। यदि भूभाग कोमल होता है तो शरीर-हाथ पैरके मर्दनसे दब जाता है। शिलामय संस्तर प्रासुक, निश्चल, सब ओरसे असंसक्त, अत्रुटित और प्रकाशयुक्त तथा पीठके लिए सम होना चाहिए। ऊँचा नीचा खुरदरा नहीं हो। फलक संस्तर भूमिके समान मोटा किन्तु हलका, निश्चल, बिना घुना, पुरुष प्रमाण, छिद्ररहित, अत्रुटित तथा कठोर होता है । चौथा तृणका संस्तर छिद्ररहित, जोड़रहित, चूर्ण न होनेवाला, जन्तुरहित, कोमल और सुखस्पर्श होना चाहिए ।।३५।।
संस्तरपर आरोहण करते समय यदि क्षपक महाव्रतकी याचना करे तो उसे जिनलिंग देने की विधि बताते हैं
तीन स्थानों में दोषसे युक्त भी आपवादिक लिंगका धारी उत्कृष्ट श्रावक यदि महाव्रतकी याचना करे तो निर्यापकाचार्य संस्तरपर आरोहण करते समय उसे औत्सर्गिक लिंग दे देवे ॥३६॥
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