Book Title: Dharmamrut Sagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

Previous | Next

Page 367
________________ ३३२ धर्मामृत ( सागार) केवलं करणैरेनमालम्ब्यानुभवन्भवान् । स्वभावमेवेष्टमिदं भुञ्जेऽहमिति मन्यते ॥५१॥ स्वभावं-आत्मपरिणामं वस्तु तस्यैवात्मना भोग्यत्वात् । तदुक्तम् 'परिणममानो नित्यं ज्ञानविवर्तेरनादिसन्तत्या । परिणामानां स्वेषां स भवति कर्ता च भोक्ता च ॥' [ पुरुषा. १० ] ॥५१॥ तदिदानीमिमां भ्रान्तिमभ्याजोन्मिषती हृदि । स एष समयो यत्र जाग्रति स्वहिते बुधाः ॥५२॥ अभ्याज-निवारय ॥५२॥ अन्योऽहं पुदगलश्चान्य इत्येकान्तेन चिन्तय । येनापास्य परद्रव्यग्रहावेशं स्वमाविशेः॥५३॥ स्वं-आत्मद्रव्यम् । आविशे:-उपयुञ्जीथास्त्वम् ।।५३॥ क्वापि चेत्पुद्गले सक्तो म्रियेथास्तद् ध्रुवं चरेः । तं कृमीभूय सुस्वादु चिर्भटासक्तभिक्षुवत् ॥५४॥ चरे:-भक्षयेस्त्वम् ।।५।। किन्तु चक्षु आदि इन्द्रियोंके द्वारा इस पुद्गलको विषय करके आत्मपरिणामका ही अनुभव करते हुए आप 'मैं इस सामने उपस्थित इष्ट वस्तुको ही भोगता हूँ' ऐसा मानते हैं। अर्थात् जिस समय आप किसी इष्ट वस्तुको भोगते हैं उस समय इन्द्रियोंके द्वारा आप मात्र उस वस्तुको विषय करते हैं, भोगते नहीं हैं। भोगते तो आप उस समय भी आत्मपरिणामको ही है क्योंकि वास्तवमें आत्मपरिणाम आत्माका भोग्य है। वस्तुभोगकी तो कल्पना मात्र है । एक द्रव्य दूसरे द्रव्यका न कर्ता होता है और न भोक्ता होता है ।।५।। विशेषार्थ-आचार्य अमृतचन्द्रने कहा है-'अनादि सन्तान परम्परासे निरन्तर ज्ञानादि गुणोंके विकाररूप रागादि परिणामोंसे परिणमन करता हुआ यह जीव अपने परिणामोंका ही कर्ता और भोक्ता होता है' ॥५१॥ इसलिए इस समय हृदयमें उत्पन्न हो रही इस भ्रान्तिको दूर करो। वह समय यही है जिसमें तत्त्वदर्शी पुरुष अपने हितमें सावधान होते हैं ।।५२।। ___ मैं अन्य हूँ और पुद्गल अन्य है। अर्थात् मैं पुद्गलसे भिन्न हूँ और पुद्गल मुझसे भिन्न है, इस प्रकार सर्वथा चिन्तन करो। जिससे अर्थात् आत्मा और पुद्गलके भेदका चिन्तन करनेसे परद्रव्यमें आसक्तिको छोड़कर अपने आत्मद्रव्यमें उपयोगको लगाओ ।।५३।। किसी भी भोजनादिरूप पुद्गलमें आसक्त रहते हुए मरे तो स्वादिष्ट चिर्भटी फलमें आसक्त भिक्षकी तरह अवश्य ही उसीमें कीट होकर उसे खाओगे ॥५४॥ विशेषार्थ-एक मुनिराज जिनालयमें समाधिमरण करते थे। एक श्रावकने जिन भगवान्के सम्मुख खरबूजा चढ़ाया। उसकी गन्ध मुनिराजकी नाकमें पहुँची और उनकी इच्छा खरबूजा खानेकी हुई । उसी समय उनका मरण हुआ । तो वह मरकर उसी खरबूजे में कीट हुए। अतः मरते समय यदि समाधिमरण करनेवालेकी आसक्ति किसी खाद्यमें रही तो उसकी दुर्गति अनिवार्य होती है ॥५४॥ १. मलं हनु-मु.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410