Book Title: Dharmamrut Sagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 355
________________ ३२० धर्मामृत ( सागार) अथाहारदृप्तमनसां कषायदुर्जयत्वं प्रकाश्य भेदज्ञानबलात्तज्जेतृणां जयवादमाह अन्धोमदान्धैःप्रायेण कषायाः सन्ति दुर्जयाः। ये तु स्वाङ्गान्तरज्ञानात्तान् जयन्ति जयन्ति ते ॥२४॥ अन्धः-भक्तम् । जयन्ति ते-सर्वोत्कर्षेण वर्तन्ते तान्प्रति प्रणतोऽस्मीत्यर्थः ॥२४॥ एवं देहाहारत्यागं विधाप्येदानीमीहितत्यागेन स्वात्मसमाधये प्रेरयन्नाह गहनं न तनोनिं पुंसः कित्वत्र संयमः। योगानुवृत्तेक्वयं तदात्मात्मनि युज्यताम् ॥२५॥ योगानुवत्ते:-मनोवाक्कायव्यापारानुगमात् । यज्यता-समाधीयताम । तथैवावोचत्स्वयमेव९ सिद्धयङ्के 'पाकं कर्मसु पुद्गलोपधितया दृग्वृत्तसंमोहयोः, संहत्य प्रयतस्तदन्वयनतो व्यावत्यं शुद्धं परम् । संशुद्धे ह्यपयोगमात्मनि समाधत्तेऽचलं भावतो, योगानप्रणयन् स्वकर्मसु यतिव्रातः सदास्मिन्वसन् ॥' [ ] ॥२५॥ अथ यतिद्वयस्य समाधिमरणफलविशेषमभिधत्ते श्रावकः श्रमणो वान्ते कृत्वां योग्यां स्थिराशयः । शुद्धस्वात्मरतः प्राणान् मुक्त्वा स्यादुदितोदितः ॥२६।। योग्यं-प्रायार्थीत्यादि प्रबन्धेन वक्ष्यमाणं परिकर्म ॥२६॥ जिससे दुर्जय कषाय और विषयरूपी शत्रुओंपर विजय प्राप्त कर सके ; क्योंकि मुनिगण तप और शास्त्रका फल 'सम' भाव मानते हैं ।।२३।। जिनका मन आहारमें आसक्त है वे कषायोंको नहीं जीत सकते, यह तथ्य प्रकाशित करके भेदज्ञानके बलसे कषायके जीतनेवालोंका अभिनन्दन करते हैं बहुत करके आहारके मदसे जो अन्धे हैं, जिन्हें स्व और परका ज्ञान नहीं है उनके द्वारा कषायोंको जीतना अशक्य है । किन्तु जो आत्मा और शरीरके भेदज्ञानसे उन कषायोंको जीतते हैं वे ही जयशील होते हैं ॥२४॥ इस प्रकार शरीर और आहारके त्यागकी विधि बताकर शरीर, वचन और मनके व्यापारको त्यागनेके द्वारा क्षपकको समाधिकी प्रेरणा करते हैं पुरुषके लिए शरीरका त्यागना कठिन नहीं है, किन्तु शरीरको त्यागते समय संयमपूर्वक त्यागना कठिन है। इसलिए मन-वचन-कायके व्यापारसे हटाकर आत्माको आत्मामें लीन करो ॥२५॥ विशेषार्थ-शरीरका त्याग कठिन नहीं है। प्रतिवर्ष कितनी स्त्रियाँ घरेलू झगड़ोंके कारण प्राण त्यागती हैं। युवक तक आत्मघात करते हैं किन्तु संयमपूर्वक शरीर त्यागना बहुत कठिन है। इसलिए समाधिके लिए जैसे आहारका त्याग, और शरीरसे ममत्व का त्याग आवश्यक है वैसे आत्माको मन-वचन-कायके व्यापारसे भी हटाना आवश्यक है उसके बिना आत्मा आत्मामें लीन नहीं हो सकता। और आत्माका आत्मामें लीन होना ही समाधि है । उसीके लिए सब प्रयत्न है ।।२५।। आगे श्रावक और मुनि दोनोंको ही समाधिमरणसे होनेवाले फलविशेषको कहते हैंश्रावक अथवा मुनि मरण समयमें आगे कहे जानेवाले परिकर्मको करके निश्चल चित्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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